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१२, वर्ष ३१, कि० ३.४
अमेकात
पौर पटना में ऐसा "हार्ट अटेक" हुप्रा कि जीने की प्राशा माह शान्तिप्रसाद चुपचाप बैठे थे और उस चर्चा को ही धमिल पड गई। किन्तु प्रकृति को उनका जाना ध्यानपूर्वक सुन रहे थे । एकाएक उन्होंने पूछा कि एक अभीष्ट नही था। अभी उनसे कुछ काम लेना था और शोध अथ मे अधिक से अधिक दो-चार मान्यताएं स्थापित वे बच गये। श्रीमती रमा रानी की दिन-रात की मेवा की जाती है. फिर ग्रथ इतना मोटा क्यों हो जाता है ! का प्रच्छा फल प्राप्त हुप्रा और साहू जी मृत्यु के उन मान्यताप्रो को संस्थापित करने, प्रमाणिक बनाने पोर कराल जबड़ो मे जाकर भी निकल आये ।
पूष्ट करने के लिए सामग्री को इर्द-गिर्द लगाना ही होता इस बीच, सम्प्रदायों का सन्तुलन बिगड़ गया। माहू है, ऐमा मैने उत्तर दिया। माहूजी ने कहा कि यदि ऐसा जी के बीमार हो जाने से, कोई अन्य योग्य निर्देशन न भी है तो कुछ सम्बन्धित सामग्री के साथ मान्यतामों के मिल सका, तो सन्तुलन बिगडना था, वह बिगड़ा । दूसरी प्रस्तुतीकरण मे साठ या सत्तर पृष्ठ से अधिक न हो पोर, दिगम्बरों मे एक नगा मत 'काजी स्वामी" के पायेंग। इतना प्रावश्यक है कि सामग्री "ट दि प्वाइट' हो। नाम पर जोर पकडने लगा। यह मत केवल 'निश्चय' पर मैं ऐमा समझता हूँ कि व्यर्थ के भार से ही शोध ग्रंथ का बल देता है, 'व्यवहार' को नितान्त हेय और बर्जनीय कलेवर बढ़ जाता है। मैं चप हो गया। इसके बाद इतने कहता है । इसने जन-साधारण में प्रचलित "भक्ति'' को वर्षों तक मैं निरन्तर यह सोचता रहा हूं कि साहू साहव मिटा देने की बात कही। उन्होंने जैनों में प्रचलित देव. का कथन नितात मरय और अनुसन्धित्सु तथा उनके शास्त्र-गुरु की भक्ति को कार दिया। मासारिक जन को निदेशको के लिए खरी चेनावनी भी थी। यह सत्य है कि
होना याज के शोध ग्रय प्राय व्यर्थ के बोझ से बोझिल होते (उनका काजी स्वामीका) पुरजोर बडन किया। उनके ग्रथा
इतना ही नहीं समम-समय पर सस्कृत, प्राकृत, को जलाया अथवा नदी में बहा दिया। बहिष्कार की बात
अपभ्रश, हिन्दी, कन्नड आदि मे कंस प्रथों की रचना हो, भी जोर पकड़ने लगी। साह जी ने इसको सन्तुलित
ऐमा दिशा-निर्देश भी वे देते रहते थे। उन्ही की सूझ-बूझ मस्तिष्क से नापा-जोमा और परखा। उन्होन दखा कि
का परिणाम था नि महावीर निर्वाणांमत्व" के वर्ष में, दिगम्बर विखण्डित हो जायेगे। शायद इसी कारण उन्हान
भारतीय ज्ञानपीठ "जैन स्थापत्य और कला" जैसे ग्रथों 'दिगम्बर जैन महासमिति' की रचना की। उन्होने कहा
की रचना करवा कर प्रकाशित करने में समर्थ हपा। जैन कि दिगम्बरो के सभी मत और सम्प्रदाय इसमे सम्मि
ग्रंथ भंडारो मे प्राचीन महत्वपूर्ण ग्रंथ हस्तलिखित रूप में लित हों। हमें खुली विचारधारागों का अधिकार है,
सुरक्षित है। साहजी चाहते थे कि उन सब को बाहर केवल मत-वभिन्य के कारण हम पृथक न होगे। मरते
निकाला जाये, उनका सम्पादन और प्रकाशन हो। वे इस मरते एकता का यह अाह्वान जितना शानदार था, उतना ।
दिशा में बढ़ रहे थे। भरमक सहायता भी करते थे। जैन ही उनकी भाव-गरिमा का द्योतक भी।
हिन्दी की प्राचीन और मध्यकालीन रचनामों को वह साह शान्तिप्रसाद पण्डित थे। भारतीय जैन पुरातत्व भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित करना चाहते थे। उन्होंने का उनको विशिष्ट ज्ञान था। मन्त्र-तन्त्र में उनको गति अपना यह विचार एकाधिक बार मुझ पर प्रकट किया किसी भी साधारण कोटि के विद्वान से अधिक थी। सबस था। एतदर्थ कुछ वर्ष पूर्व "भारतीय ज्ञानपीठ" की बड़ी बात थी -- उनकी मौलिक प्रतिभा और नव-नवोन्म- प्रकाशन समिति में मुझे दो ग्रंथ सौंपे गये थेशालिनी बद्धि । एक दृष्टात दे रहा हू:--मारतीय ज्ञानपीठ मध्यकालीन हिन्दी पदों के आधार पर 'भक्ति और भाव' की प्रकाशन समिति की बैठक थी। शोध प्रवन्ध के तथा जैन हिन्दी का मादि काल' । मुझे दुख है कि उनके प्रकाशन पर चर्चा चल रहो थी। शोध ग्रथ के प्रका- जीवन काल में मैं इन्हें तैयार न कर सका। प्रव, पहला शन में पर्याप्त व्यय करना होता है। इस दृष्टि से इनकम ग्रंथ ज्ञानपीठ को सौंपा है और दूसरा भी तैयार ही है। नही हो पाती। एक प्रकार से घाटे का सौदा रहता है। कुछ पिछड़ गया । माज के जीवन की घनीभूत व्यस्तता