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संगतं श्री-सरस्वत्योः
डा० हरीन्द्र भूषण जैन एम. ए., पी-एच. डी., उज्जन विश्ववन्द्य महाकवि कालिदास ने अपने विक्रमोर्वशीय साहजी की जैन धर्म और दर्शन के प्रति प्रट श्रद्धा नाटक के भरतवाक्य में लिखा है :
गे। वे प्राकृत भाषा और उसके साहित्य के उन्नयन में परस्परविरोधिन्योरेकसंश्रयदुर्लभम् । विशेष रुचि लेते थे। इस विशेष प्रयोजन की सिद्धि के
सङ्गतं श्रीसरस्वत्योभूतयेऽस्तु सदा सताम् ॥ लिए उन्होंने 'अखिल भारतीय प्राच्य विद्या सम्मेलन' के प्रर्थात्-परस्पर विरोधिनी श्री एवं सरस्वती का
भूतपूर्व प्रधान अध्यक्ष यश.शेष डा ए. एन. उपाध्ये, एक स्थान पर समागम यद्यपि दर्लभ है, फिर भी सज्जनों
प्राकृत एवं जैनोलाजी विभाग के भूतपूर्व अध्यक्ष स्वर्गीय की समृद्धि के लिए इन दोनो का ममागम हो।
डा. हीरालालजी, प. कैलाशचन्द्रजी शास्त्री प्रादि के ऐसा लगता है कि महाकवि को उपर्युक्त कामना को
परामर्श एवं सहयोग से स्व. पुण्यश्लोका माता मूर्तिदेवी साकार करने के लिए ही भारत के गौरव एवं जैन समाज
की पवित्र स्मृति में, भारतीय ज्ञानपीठ के अन्तर्गत 'मूर्ति के अनभिषिक्त सम्राट् साहू शान्तिप्रसाद जन ने इस भारत
देवी जैन ग्रंथमाला' की स्थापना की। इस ग्रंथमाला के भ को अलंकृत किया था ।
माध्यम से प्राकृत, सस्कृत, अपभ्रश, हिन्दी, कन्नड़, तमिल 'साह' शब्द जैन संस्कृति का महत्वपूर्ण शब्द है।
आदि प्राचीन भाषाम्रो मे उपलब्ध प्रागमिक, दार्शनिक अनादि-निधन मन्त्र मे हम सभी पढते हैं-"णमो लोए सव्व
पौराणिक, साहित्यिक, ऐतिहासिक प्रादि विविध विषयक साहूण" । 'साहू' का अर्थ है माधु अर्थात् सरल, निश्छल,
जैन-साहित्य का अनुसन्धान-पूर्ण सम्पादन, अनुवाद एवं विनीत, सेवाभावी, स्वपर-कल्याणी प्रादि । दूसरे शब्दों में,
प्रकाशन हो रहा है। जैन भंडारों की सूचियां, जैन मानवता के जितने विभूषण इस वसुन्धरा पर सम्भव है,
शिलालेख संग्रह और लोक-हितकारी जैन साहित्य भी 'साहू' ने उन सबको समेट लिया है। यदि हम व हे कि
इसी ग्रंथमाला में प्रकाशित हो रहा है। श्रद्धेय साहू जी का नामाप्र 'सार' न केवल सार्थक है,
साह जी ने भगवान महावीर के २५ सोवें निर्वाण प्रत्युत वह उनके समग्र जीवन के लक्ष्य, आदर्श एव चितन
महोत्सव को, सभी सम्प्रदायों के द्वारा मिल कर सफल को प्रतिबिम्बित करता है, तो यह कोई प्रत्युक्ति न होगी।
बनाने मे जो अभूतपूर्व योगदान दिया, वह अविस्मरणीय है। मन्तिम क्षणो में उनकी प्रभिलाषा हस्तिनापुर में मुनिश्री
इस अवसर पर यदि भारतीय ज्ञानपीठ ने अपने महत्वपूर्ण शांतिसागर महाराज के निकट साध जीवन व्यतीत करने
प्रकाशन न किए होते तो महावीर परिनिर्वाण महोत्सव की थी।
केवल उत्सवो और भाषणो में ही उलझ कर रह जाता। साहूजी ने अपने जीवन में, विशेषतः उद्योग-व्यवसाय
साहूजी ने प्राचीन जैन तीर्थों और मन्दिरों के जीर्णोद्धार के क्षेत्र में जो अनेक लक्ष्य प्राप्त किए, वे नि.सन्देह
में प्रचर अर्थदान किया। उन्होंने साह जन कालेज, नजीबाप्रसाधारण है। पर हम जिस बात को अत्यन्त महनीय
बाद जैसी अनेक शैक्षणिक संस्थानो की भी स्थापना की। मानते हैं वह उनका राष्ट्र की सास्कृतिक, साहित्यिक एवं
जैन शिक्षा के क्षेत्र में साहजी का जो अविस्मरणीय शैक्षणिक प्रगति में प्रदृष्टपूर्व योगदान ।
योगदान है, वह है वैशाली में 'प्राकृत, जैन धर्म एवं ___ माहू जी भारतीय धर्म एव दर्शन, इतिहास तथा
अहिंसा शोध संस्थान' तथा मैसूर विश्वविद्यालय में 'साह संस्कृति और पुरातत्व एवं कला के अध्ययन मे विशेष
जैन चेयर इन जैनालाजी' की स्थापना । रुचि रखते थे। उनके मन में भारतीय भाषामो पौर
इस प्रकार, दानवीर एव श्रावक शिरोमणि साह साहित्य के विकास का दढ़ सकल्प था। इस उद्दश्य की श्री शान्तिप्रसाद जी ने अपने जीवन के ६५ यशस्वी वर्ष पूर्ति के लिए उन्होने भारतीय ज्ञानपीठ की स्थापना की
मानवता की सेवा में व्यतीत किए। भारत माता के इस और भारतीय भाषामो को सर्वश्रेष्ठ सृजनात्मक साहि- सच्चे सपूत को मेरा सादर प्रणाम । 000 त्यिक कृति पर प्रतिवर्ष एक लाख रुपए के पुरस्कार की
रीडर, संस्कृत विभाग, विक्रम विश्वविद्यालय, घोषणा की।
उज्जैन (म० प्र०)