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४, वर्ष ३१, कि० ३-४
अनेकान्त
अन्तरिक्ष युग:
संक्षेप में, जिस प्रकार स्वर्गीय साह जी ने उद्योग पृथ्वी और ग्रह-नक्षत्रों के प्राकार मोर गति के विषय के क्षेत्र में नवीन प्रवृत्तियों को प्रात्मसात् करने में सफलता में विभिन्न विचार-धारायें पुरातन समय में प्रचलित थीं। पाई, उसी प्रकार जन विचारकों को विद्या के क्षेत्र में वे प्रायः स्थूल निरीक्षण पर प्राधारित थी। प्रत' उनकी नवीन प्रवृत्तियों को प्रात्मसात् करना होगा। हमारा ग्राह्यता के विषय मे तर्क-वितर्क सम्भव थे। रूसी और विश्वास है कि नई पीढ़ी के अधिकतर जैन विद्वान यही अमरीकी वैज्ञानिकों द्वारा प्रवर्तित अन्तरिक्ष यात्रामों के चाहते हैं। किन्तु इस समय उनके विचार मापसी बतफलस्वरूप यह विषय प्रब प्रत्यक्ष ज्ञान की कक्षा में प्रा चीत या सीमित विद्वद्गोष्ठियों तक ही सीमित है। गया है तथा चन्द्र के धरातल पर खड़े होकर मानव द्वारा सामाजिक मंचों पर पुरातन के दोहराव की ही प्रवृत्ति लिए गए पृथ्वी के फोटो प्राप्त हो चुके है। इस नये ज्ञान लक्षित होती है। इस स्थिति में सुधार होकर, विद्वज्जन के प्रकाश में हमारे त्रिलोक वर्णन सम्बन्धी परम्परागत खले मन से विचार व्यक्त करें तो जैन विद्या को बड़ा विवरण परीक्षणीय है। खेद की बात है कि अधिकाश लाभ होगा। कार केवल प्रथमानुयोग और करणानुयोग जन पण्डित केवल श्रद्धा के बल पर पुराने विवरणों से केही विचारणीय विषयों की पोर सकेत किया गया है। चिपके रहना चाहते हैं। इसके अपवाद स्वरूप जैनेन्द्र- इसी प्रकार, प्राधनिक प्राणिशास्त्र प्रादि की उपलब्धियों सिद्धान्तकोश में क्ष० जिनेन्द्र वर्णी जी का यह अभिमत से हमारे चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग भी लाभान्वित पढ़कर हमे सुखद पाश्चर्य हुआ (भा० ३, पृ० ४५२) कि हो सकते है। श्रद्धालु समाज और विचारक इन दो वर्गों वर्तमान के भगोल की, जिसका प्राधार इन्द्रियप्रत्यक्ष है, में वर्तमान समय मे जो अन्तर पड़ा हप्रा दिखता है उसे अवहेलना करना या उसे विश्वासयोग्य न मानना युक्त यथासम्भव कम करना तो इसी दिशा में प्रयत्नों से सम्भव नही। इस दृष्टि का विस्तार अपेक्षित है।
होगा।
(पृष्ठ २ का शेषांश) मझे मिला है। इससे उनकी जैन धर्म के प्रति श्रद्धा और मिला व जो भी अच्छी बात उनके ध्यान मेश्रा गई, तुरंत धर्म की अधिक से अधिक सेवा करने की भावना, साहित्य कार्य रूप में परिणत की। यदि वे और कुछ वर्ष जीते तो कलानुराग एवं अनेक मानवोचित्र सद्गुणों का परिचय जो काम प्रघरे रह गये वे काफी हद तक पूरे हो जाते। पाकर उनके प्रति मेरी सद्भावना में वृद्धि होती रही है। जैन समाज के चारों सम्प्रदायों मे एकता लाने व
बम्बई मे निर्वाण महोत्सव की मीटिंग थी और मैं दद करने के लिए उन्होने बहुत बड़ा प्रयत्न किया। भी उसमे गया था। वहां जन कला मर्मज्ञ पूज्य मुनि श्री अपनी प्रोर से पूर्ण सावधान रहे कि सभी सम्प्रदायों के यशोविजय जी के साथ जैन चित्रकला, मूर्तिकला मादि प्रमख मनियों व व्यक्तियों का अधिकाधिक सहयोग प्राप्त के सम्बन्ध में मैंने बहुत जिज्ञासा व अनुगग साहू जी किया जाय व किसी को भी ऐसा न लगे कि वे दिगम्बर मे पाया। दो दिन तक कई घण्टे वे मुनि जी के सम्पर्क मे का कुछ भी पक्षपात कर रहे है। दिगम्बर सम्प्रदाय की रहे प्रो काफी प्रेरणा प्राप्त की, इसका मै साक्षी हूं। एकताके लिए भी, अन्तिम समय मे भी, उन्होने बहुत अच्छा
निर्वाण महोत्सव को अच्छा से अच्छा और अधिक से प्रयास किया। खेद है कि हम उन की भावना, कार्यक्षमता, अधिक प्रभावकारी रूप मे मनाने के लिए साहू जी मे तत्परता उदारता से जितना अधिक लाभ उठाना चाहिए जितना उत्साह देखा, उना और किसी में नही। वास्तव था, नही उठा पाये और निर्वाण महोत्सव के बाद मे जितना का- उन्होन किया उतना दूसरे किसी ने नही हमारी एकता व जागति मे बहुत कमी मा गयी। अतः किया । अपने विशाल व्यापार पर बहुत कम ध्यान देकर ऐसे समय में उनका प्राकस्मिक चला जाना बहुत ही वे निर्वाण महोत्सव की सफलता के लिए पूर्ण रूप से जुट प्रखरता है। उनके प्रभाव की पूर्ति असंभव सी हो गई गये। जिससे भी, जहां से भी, जो अच्छा सुझाव उन्हे है । एक नररत्न को हम खो बैठे हैं। 00D