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'जन' हरिवंशपुराण कालीन भारत को सांस्कृतिक झलक
एस. प्रेमचन्द जैन एम. ए., पी-एच. डी.
प्रत्येक युग का सच्चा साहित्यकार, कवि या महाकवि हरिवंशपुराण के ११वें सगं में वणित भगवान ऋषभदेव स्वयं अपने समय की भौगोलिक, सामाजिक, राजनैतिक और को दीक्षा के प्रकरण में चारों दिशामों के अनेक नगरो के ऐतिहासिक परिस्थितियो के परिप्रेक्ष्य मे एवं पृष्ठभूमि के उल्लिखित होने से होती है---कुरूजागल, पांचाल, सुरसेन, पट पर ही अपने वर्ण्य विषय के काल को प्रमक स्थिति पटंचर, यवन, अभीर और भद्रक, क्वाथतोय, तुलिगं, के चित्र की रेखाए अक्ति करता है। चाहे वह किसी भी काशी, कोशल्य, भद्राकार, वृकार्थक, सोल्व, ग्रावष्ट, त्रिगर्त, काल की स्थितियो का वर्णन करे, परन्तु उसके अनुमान कुशाग्र, प्रात्रेय, काम्बोज, शूर, बाटवाना, कैकय, गान्धार, का प्राधार तो उसका वर्तमान ही होता है। इसी वर्तमान सिन्धु. सौवीर, भारद्वाज, दशरूक, प्रास्थाल भोर तीर्णके तट पर, उसकी कल्पना रूपी तूलिका मन-माने रग कर्ण ये देश उत्तर दिशा की पोर थे। मग, अंगारक, भर-भरकर नये-नये चित्र बनाती है । उसका सजागरूक पोण्ड, मल्ल, युवक, मस्तक, प्राग्ज्योतिष, वग, मगध, यत्न रहता है कि वह पाठक को वर्तमान से उठाकर, मानवतिक, मलद और भागर्व ये देश पूर्व सीमा मे स्थित उसके मानस को अपने वर्ण्य काल के स्तर पर ले जाये थे। वाणमुक्त, वेदर्भमाणव, सक्कापिर, भूलक, अश्मक, और इस यत्न में उसे जितनी सफलता मिलती है, वहीं दाण्डिक, कलिंगं, पाशिक, कुन्तल, नवराष्ट्र, माहिस्क, उसके साहित्य साफल्य का मापदण्ड बनती है । पर सम- परूष. और भौगवर्दन ये दक्षिण दिशा के देश थे । माल्य, सामयिक युग की स्थितियों का सही-सही चित्रण भी
कल्लीवनोपान्त, दुर्ग, सुपार्ट, कवुक, काशि, नासारिक, उसके साफल्य की उतनी ही महत्त्वपूर्ण कसौटी है जितनी प्रगत, सारस्वत, तापम, महिम, भरूकच्छ, सुराष्ट्र और कथा-वस्तुगत वर्ण्य काल के चित्रण की। इस दृष्टि से नर्मद ये पश्चिम दिशाके देश थे । दशार्णक, किष्किन्ध, त्रिपुर, जिनसेनाचार्य ने तत्कालीन भारत की भौगोलिक स्थिति, पावत, नषध, नेपाल, उत्तमवर्ण, वैदिश, अन्तप, कौशल, देश, प्रान्त और प्रमुख पर्वत, नगर, नदिया, वृक्ष, वन- पत्तन और विनिहार ये देश विन्ध्याचल के ऊपर स्थित थे। स्पतिया, पशु-पक्षी, दक्षिण से लगाकर उत्तरपूर्व और उत्तर. भद्र, वत्स, विदेश, कुश, भग, संगव और वञ्चखण्डिक ये पश्चिम के दक्षिण पथ के मार्ग और विंध्य के उत्तर म देश मध्यदेश के प्राधित थे । इनमे वत्स, अवन्ती, कौशल उत्तर के प्रमुख महाजनपों के सम्बन्ध मे प्रभूत व और मगध मे राजतन्त्र था, बाकी गणतान्त्रात्मक थे। प्रामाणिक जानकारी प्रदान की है। देश के तत्कालीन राजतन्त्रों का राजा निरंकुश नहीं होता था, यह सामाजिक जीवन, व्यापार, कृषि, शिक्षा, साहित्य, मंत्रिपरिषद की राय से कार्य करता था और प्रजा की सामाजिक रीतिरिवाज एव धार्मिक विश्वासो तथा भावना का समादर करता था। गणतन्त्र में कहीं एक प्रामीण व नागरिक जीवन का सटीक परिचय प्राप्त करने मुख्य राजा होता था, कहीं गणराजापो की परिषद् थी, की दृष्टि से भी यहां प्रचुर सामग्री उपलब्ध होती है। कही मुख्य राजा होते हुए भी गणपरिषद प्रधान थी और देश की राजनैतिक अवस्था के सम्बन्ध मे कवि ने प्रत्यक्ष कही मुख्य-गण बारी-बारी से राज्य करते थे। कुछेक तो नहीं परन्तु अप्रत्यक्ष रूप से जो सकेत दिये है उनसे महत्त्वाकाक्षी विस्तार-लोलुप सम्राट भो थे । गणतन्त्री से तत्कालीन समय की राजनैतिक अवस्था का अच्छा वोष इनके सम्बन्ध अच्छे नहीं थे और कभी-कभी वे युद्ध तक हो जाता है।
कर बैठते थे । गणतन्त्रों के सम्बन्ध आपस में प्रायः पच्छे भौगोलिक स्थिति
थे। कारण विशेष में कभी कभी कुछ विवाद भी उठते भारतवर्ष के भौगोलिक विभाजनों का कवि का ज्ञान रहते थे। नदी, जल, परिवहन, ग्राम प्रादि के कारणों से विशद पौर प्रामाणिक था । इसकी अनुभूति हमें विवाद उठना ही इनमे मुख्य था। कभी-कभी किसी १. हरिवशपुराण, १११५७-७४ ।