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नियतिवाद नामा नियमवाद
0 श्री महेन्द्रसेन जैन, नई दिल्ली
जितनी उलझन और जितना वितण्डावाद भाग्य पोर जब नियमो को समझकर (शिक्षा-दीक्षा) उनके अनुकूल पुरुषार्थ, कर्म और नियति को लेकर है, शायद ही किसी सही पुरुषार्थ करे। नीला-पीला मिलकर हरा रग बन दूसरे विषय पर हो। अक्सर उदाहरण दिया जाता है कि जाता है, चित्रकार यह नियम जानता है । जब हरे रंग एक गिलास मे प्राधा पानी है भाग्यवादी कहता है की बाछा हो तो वह दोनों को मिला कर प्राप्त कर लेता कि मेग गिलाम प्राधा खाली है, गरे भाग्य में यही था। है, परन्तु उसके मिलाने का पूरुषार्थ किए बिना उसको कमवादी करता है कि मेरा गिलाम प्राधा भरा अपने पाप हरा रंग कभी भी नहीं मिलेगा । दूमी अोर, है और अपने पुरुषार्थ से बाकी प्राधा भी मैं भर लूगा। यदि पुरुषाथ नीले-पीन रग को तो कह नही पौर इमसे चाहे जो भी पर्थ निकले, एक बात तो बहुत स्पष्ट दुनिया भर के अन्य रगो का घोटा लगाता फिरे और कहे है कि भाग्यवादी का गिलास भरने की तो कोई सम्भावना कि मैं हरा रंग बनाकर छोडगा तो यह मिवार शमचिल्ली ही नहीं है क्योकि अन्य कोई ऐसी देवी शक्ति का प्रमाण के प्रकार के और कछ नही है। नही है जो प्राकर किसी का प्राधा खाली गिलास भर दे। इसके अतिरिक्त Afraitunita पुरुषार्थी यह कर सकता है ऐसा उसे विश्वास है, जिसके
है। मानव चाहे कि मैं हाथी के बराबर बोझ उठा लू, तो बल पर वह धर्म में जुटा हुप्रा है।
नही हो सकता। परन्तु उसमे इतनी बुद्धि जरूर है कि चास्तव में बात दोनो की अधरी है। जहाँ रह सच यत्र से हाथी की शक्ति पैदा करके उससे उठा ले । फिर है कि स्वयं मानव के अलावा और कोई शक्ति नहीं है जो भी इससे तो उसकी सीमा को ही पुष्टि होती है । दूसरी उसका कल्याण-अकल्याण कर सके या उसे प्रत्याशित- पोर, बुद्धि भी तो क्षमता ही है। चीटी की अपनी सीमाए अप्रत्याशित फल दिला सके, वहा यह भी स्पष्ट है कि व क्षमताए है, मानव को अपनी, पशु-पक्षी की अपनी. दुनिया का हर कार्य नियमो से बधा है और उनकी परिधि पेड़-पौधों की अपनी, इत्यादि-इत्यादि । इन सीमाओं और के अन्दर मानव की सीमाएँ है, सामाजिक नियम है,
क्षमतामो को कान जी स्वामी ने संज्ञा दी है-'पर्याय यो. कानूनी नियम है और उसी प्रकार प्राकृतिक नियम है।
ग्यता' अर्थात् जो जिप्त पर्याय मे है, उसकी कितनी क्षमता झूठ बोलना, न बोलना हमारे पुरुषार्थ के अधीन है, परन्तु
है और उसकी क्या सीमाए है। पुरुषार्थ उन्ही की परिधि झूठ बोलकर झूठा कहलाना यह नियमबद्ध है, झूठ बोल..
न मे हो सकता है। उनके बाहर भी मैं चाहे जो करके दिखा कर मैं सच्चा ही कहलाऊँगा यह व्यर्थ का अहकार है।
दूंगा, यह मात्र अहंकार है और उनके अनुरूप भी पुरुषार्थ
न करके भाग्य मेरे खुले मुहे मे आसमान से बेर टपका हत्या की, नियम ने फामी चढा दी। हत्या करना, न
देगा, यह महामूढ़ता है। वहाँ भी मुंह खोलकर रखने करना पुरुषार्थ के माधीन है, परन्तु हत्या करने का फल
का पुरुषार्थ तो करना ही पड़ेगा। नियम के अनुसार मिलेगा । ग्राम का पेड़ बोएं या बबूल
अब प्रश्न उठता है कि यह भाग्य नाम की चीज का, यह पुरुषार्थ हमारे अधीन है, परन्तु उसमे फल लगना
पाई कहाँ से ? पुरुषार्थ तो स्पष्ट अनुभव में प्राता है नियम के अधीन है। माम मे नियम के अनुसार माम
और प्रत्यक्ष है, परन्तु भाग्य के सम्बन्ध मे हम अक्ल से लगेगा और बबूल में कांटे ।
काम नहीं लेना चाहते । हम रोज देखते है कि हर कार्य दूसरे शब्दों में, पुरुषार्थ भी तभी वांछित फल देगा
(शुष पृष्ठ ५१ पर)