________________
१४, वर्ष ३१, कि०२
होने लगी। इस भाषा में प्रमुखतः काव्य, चरित्र, पुराण साधारण द्वारा रस लेना बौद्धिक जायति का एक प्रमतपूर्व एवं कथाएं ही लिखी गयीं, इसने स्पष्ट है कि उनकी लक्षण है। देश में छोटे-छोटे स्वाध्याय-मंडल खोले भये । रचना जनरुचि को देखकर ही होती थी। महाकवि स्व. प्राध्यात्मिक शैलियां चलायी गयीं जिनमें विभिन्न श्रावक यम्भू एवं पुष्पदन्त दक्षिण भारत के कवि थे, लेकिन उनके श्राविकायें भाग लेकर चर्चा करते थे। यही नहीं, गुणकाव्यों का मबसे अधिक प्रचार उत्तर भारत में हमा। स्थान, मार्गणा, प्रष्टकर्म एवं उनकी प्रकृतियों पर विस्तृत अपभ्रंश के सभी कवियों ने काव्यों की रचना स्वाध्याय चर्चा ग्रंथ लिखे गये। मागरा में इसी प्रकार की एक प्रेमी श्रावकों के प्राग्रह से की, जिनकी प्रशस्तियां काव्यों आध्यात्मिक शैली थी जिसका महाकवि बनारसीदास ने के अन्त मे लिखी हई मिलती हैं जो उन कवियो की लोक- उल्लेख किया है। प्रियता की मोर स्पष्ट संकेत है।
प्राध्यात्मिक चर्चा अपभ्रश ग्रन्थों की प्रशस्तियों के प्राधार पर तत्काल जैनाचार्यों ने प्राध्यात्मिक साहित्य का निर्माण करके लीन समाज की साहित्यिक अभिरुचि का पता लगता है। जनजीवन को जाग्रत बनाने का प्रयास किया। "पुनरपि उस समय श्रावकगण विद्वामों से ग्रन्थ निर्माण की प्रार्थना जननं पुनरपि मरणं" के भलावे से बचाने के लिए उन्होंने करते थे। अपभ्रंश एवं हिन्दी साहित्य के निर्माण में ऐसे प्राध्यात्मिक ग्रंथों की रचना की। मात्मा की सच्ची मनुही श्रावकों की विशेष प्रेरणा रही थी। कविवर बुलाकी- भति के लिए उन क्रियानों पर जोर दिया जिनमें भेद दास को तो उनकी माता जैनी ने पाण्डवपुराण एव प्रश्नो- विज्ञान की चर्चा की गई है। ईश्वर के प्रभाव से बचने, तरोपासकाचार के निर्माण में प्रेरणा दी थी जिसका उसमे प्रास्था रखकर स्वयं निष्क्रिय बनने से बचाने के कवि ने पाण्डवपुराण मे स्पष्ट उल्लेख किया है। महाकवि लिए स्वयं परमात्मा बनाने की कल्पना अनूठो है तथा राधु का सारा साहित्य ऐसी ही प्रेरणा देने वाले व्यक्तियों इससे उसमें स्वय ही एक कर्तत्व शक्ति पैदा होती है। के परिचय से भरा पड़ा है।
आध्यात्मिक साहित्य के रचयितामों मे भाचार्य कुन्दकुन्द' हिन्दी को प्रोत्साहन
का नाम सर्वोपरि है जिन्होने प्राकृत भाषा में प्रवचनसार, अपभ्रश के पश्चात् जैन कवियो ने प्रादेशिक भाषामो
समयसार जैसी कृतियां लिखकर बुद्धिजीवियों का महान में ऐसे काव्य-साहित्य का निर्माण किया जिसे जन साधा
उपकार किया। हमारे मागम साहित्य मे तो मध्यात्म का रण भी बड़े चाव से पढ़ सके। उन्होने चरित्र काव्यों की
अनठा वर्णन मिलता ही है। लेकिन उनके पश्चात् लिखे रचना की। रास काव्य लिखे। वेलि फागु के नाम से जाने वाले प्राकृत, अपभ्रश, सस्कृत ग्रन्थों में प्रात्मा, उनमें कुछ नवीनता दिखलाई । बारहमासा लिखकर ।
परमात्मा, जन्म-मरण मादि की जो चर्चायें मिलतो हैं उन घटना वर्णन के साथ-साथ प्रकृति वर्णन किया। सतसई,
सबसे बौद्धिक जीवन पर गहरी छाप पड़ी तथा उसने शतक, पंचासिका, चौबीसी नाम देकर पाठको में संख्या- वैचारिक कान्ति करने में अपना विशेष योग दिया।' वाचक कृतियो के प्रति अभिरुचि पैदा की। विभिन्न प्रकार शास्त्रार्थ परम्परा के स्तवन लिखे और उनमे भक्ति का अलग-अलग पुट भी शास्त्रार्थों की परम्परा ने भी बौद्धिक विकास में दिया। इन काव्यों में तत्कालीन समाज की माथिक दशा, विशेष योग दिया। शंकराचार्य ने शास्त्रार्थों द्वारा ही बौद्ध व्यापार, व्यापार के तरीके, रहन-सहन, खान-पान प्रादि धर्म को देश से बाहर जाने को मजबूर किया था। लेकिन का अच्छा परिचय मिल सकता है। साहित्य निर्माण के जैनाचार्य शकराचार्य की प्रांषी मे भी प्रभावित रहे भोर अतिरिक्त तात्विक एव दार्शनिक मर्थ मे विद्वानों एवं जन
(शेष पृष्ठ ५८ पर) १. अपभ्रश साहित्य, प्रो० हरिवश कोछड़, पृ० ५१। ३. अर्धकथानक-नाथूराम प्रेमी, पृ. ३५। २. देखिये, राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डारों की ग्रंथ ४. जैन लक्षणावली, असाखना, पृ. ५। सूची, भाग ३, पृ. ६४ ।
५. अपभ्रश साहित्य, पृ. २६५।
-