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देश के बौद्धिक जीवन में जैनों का योगदान
- डा० कस्तूरचन्द कासलीवाल, जयपुर जैन धर्मानुयायी प्रारम्भ से ही देश के सबसे अधिक नयी क्रान्ति उपस्थित की। उन्होंने प्राकृत के मागम ग्रथो सुसंस्कृत, शिक्षित एवं विचारक रहे हैं। अपनी दार्शनिक में विकीर्ण जैन तत्त्वज्ञान को अपने तत्त्वार्थ-सूत्र में समेटबुद्धि के माध्यम से उन्होंने सभी क्षेत्रों में क्रान्तिकारी कर रख दिया।' उमास्वामी प्रथम जैनाचार्य थे जिन्होंने परिवर्तन किये और भगवान ऋषभदेव से लेकर भगवान् जैन तत्त्वज्ञान को योग, वैशेषिक प्रादि दार्शनिक पद्धतियों महावीर एवं उनके पश्चात होने वाले प्राचार्यों ने देश के के अनुरूप वैज्ञानिक ढंग से बद्धिजीवियों के समक्ष उपबौद्धिक विकास में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। स्थित किया। सूत्र रूप में लिखे इस ग्रन्थ में दर्शन, प्राचार मनि, प्रायिका, श्रावक एवं श्राविका इन चार भागो में एवं कर्मसिद्धान्त प्रादि का जी विवेचन हमा है वह प्रवर्णसमस्त जैन संघ को विभक्त करके भगवान् महावीर ने नीय है । जैन साहित्य के क्षेत्र मे यह इतना प्रभावशील सभी को बौद्धिक विकास का सुअवसर प्रदान किया। सिद्ध हुमा कि दिगम्बर एवं श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायों मे
कारण कि जैनाचार्यो, मनीषियों एव विचारकों ने यह ग्रन्थ समान रूप से समादत ही नही हमा, किन्तु अनेक अपने विचारो से, साहित्यिक एव दार्शनिक कृतियों से प्राचार्यों ने इस पर छोटी-बड़ी टीकाएँ लिखकर उसके देश के जनमानस को सदैव जाग्रत रखा । इसे परम्पराओं प्रचार को सर्वोच्च प्राथमिकता दी। से चिपटे रहने से बचाकर बुद्धिपूर्वक सोचने पर विवश दूसरी-तीसरी शताब्दी में होने वाले प्राचार्य समन्तकिया और स्याद्वाद एवं अनेकान्त जैसे दार्शनिक सिद्धान्तों भद का बदनिता को व्यावहारिक जीवन में खुलकर उतारा । अपरिग्रहवाद थे। शास्त्रार्थ मे अपने बिराधियो को परास्त करने मे के माध्यम से लोगों में संग्रह वृत्ति की भावना को उभा- अत्यधिक पारंगत थे। उन्होंने अपने पापको प्राचार्य, रने से बचाया और स्वाध्याय की प्रेरणा देकर जन-जन कवि, वादिराज, पडित, ज्योतियी, वैद्य, यात्रिक एवं को ज्ञानार्जन की दिशा में प्रवृत्त होने के मार्ग को प्रशस्त तांत्रिक प्रादि सभी की तो घोषणा की थी। शास्त्रार्थ करते. बनाया।
करते उन्होंने पाटलिपुत्र, मालवा, सिन्धु, ढाका, कांचीपुर प्रमुख प्राचार्यों का योगदान
एवं बिदिशा में अपनी विद्वत्ता एव ताकिकपने की दुन्दुभि भबवान महावीर के प्राचार में अहिंसा, विचारों मे बजायी। उन्होने प्राप्तमीमासा, युक्त्यनुशासन एब स्वअनेकान्त, वाणी मे स्थाद्वाद् और जीवन मे अपरिग्रह जैसे यम्भूस्तोत्र जैसे दार्शनिक ग्रन्थों तथा रत्नकरण्डश्राबकासिद्धान्तो से देशवासियों को बौद्धिक विकास की पीर चार जैसे प्राचार प्रधान ग्रन्थों की रचना करके जन साधा. प्रवृत्त होने की बिशेष प्रेरणा मिली। महावीर के पश्चात रण मे तार्किक बुद्धि के विकास में योग दिया। होने वाले प्राचार्यो एव साधुमो ने उक्त सभी सिद्धान्तों चतुर्थ शताब्दी में होने वाले प्राचार्य सिद्धसेन का को दढ़ता से अपने जीवन में उतारा और वे उन्ही के जैन दार्शनिको मे उल्लेखनीय स्थान है। वे बड़े ही ताकिक अनुसार श्रावकों एवं सामान्य जनता को इस पोर प्रवृत्त विद्वान् थे तथा उन्होने सन्मतिसूत्र एवं सिद्धसेनद्वात्रिंशिका होने की प्रेरणा देते रहे । सर्व प्रथम प्राचार्य उमास्वामी ने जैसे दार्शनिक ग्रन्थो की रचना करके देशके बौद्धिक चिन्तन तत्त्वार्थाधिगम की रचना करके चिन्तन के क्षेत्र में एक के विकास में महत्त्वपूर्ण गोगदान दिया।' इन दार्शनिको के १. जैन लक्षणा वली, प्रस्तावना, पृ. १६ । २. जैन साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश, पृष्ठ १७२ । ३. जैन साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश, पृ. ५०१ ।