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३८. वर्ष ३१, कि० २
भनेकान्त
प्रियदत्त की छियानवे हजार", श्रीपाल कीनठारह हजार", अनुकरणीय उदाहरण है। पति का मादेश न मानने पर वासुदेव त्रिपृष्ठ की सोलह हजार", रावण की अठारह पृथ्वी देवी को अपने समस्त धन से हाथ धोना पड़ता है। हजार", सहस्रगति की सहस्राधिक", नागकुमार की सह- तो एक शबरी अपने पति को एक मुनि का वध करने से स्राधिक", करकण्ड की सहस्राधिक रानिया" थी। रोक लेती है। प्रवास पर जाते श्रीपाल का दामन पकड़ पति-पत्नी सम्बन्ध
कर मनासुन्दरी कहती है कि पहले किसे छोड़ें । अपने
प्राण या तुम्हारा दामन", समापन्न पति-विरह से पति-पत्नी सम्बन्धो का चित्रण अपभ्रंश साहित्य में
उकी जो अकुलाहट इम वाक्य द्वारा व्यक्त होती है. उस सहज और व्यापक रूप में नही हुमा, जिस रूप गे ग्राज
वह काव्यमात्र की वस्तु नही मानी जा सकती। के साहित्य मे हो रहा है। मनोविश्लेषण और चरित्र-चित्रण का प्रायः प्रभाव केवल अपम्रश ही नही, प्राकृत, संस्कृत, विरह-वर्णन और जीवन-मूल्य पुरानी हिन्दी और अन्य पुरानी भाषामो में भी रहा है। विरह, विशेषत पत्नी या प्रेमिका का काव्य मे एक फिर भी पति-पत्नी सम्बन्ध की कुछ झाकियाँ शोचनीय अत्यन्त व्यापक विषय रहा है किन्तु वह सदा ही जीवनमिलती है तो अधिकांश अनुकरणीय पौर विचारणीय भी। मूल्यों का सहगामी रहा है। विरह से व्याकूल और क्षीण राजा यशोवर की रानी अमतमती का एक कुबड़े पर", नारी के मुख से निकली गालिया और कराहें उसके राजा नलकबर की गनी उपरम्भा का रावण पर", ग्रान्तरिक विचारो और अनुभूति की हीनाधिकता की वाराणमी के राजा लोकपाल की रानी विभ्रमा" का एक द्योतक है। यही द्योगन जीवन-मूल्यो के निर्धारण में सहायक सनार पर मासक्त होना प्रवाछनीय है ता पतिव्रत या पति बनता है। दूसरी पार ध्यान देन की बात यह है कि विरह सेवा के देत सीता का राम के साथ १४ वर्ष का वनवाग की व्याकुलता और असह्य वेदना स्त्रियो के मत्थे अधिक मढी अजना का विवाह के तुरन्त पश्चात् अपने पति पवन जय गपी है। प्रेम के वेग की मात्रा स्त्रियो मे अधिक दिखायी से बारह वर्ष का वियोग४०, और सूर्य मेन की पत्नियो गयी है। नायक क. दिन-दिन क्षीण होने, विरहताप म जयभद्रा, सुभद्रा, धारिणी और यशामती द्वारा अपने भस्म होने, सूखकर ठठरी होने के वर्णन में कवियों का पति के सैकडो व्याधियो से ग्रस्त और अत्याचारी होने पर जी उतना नही लगा है। बात यह है कि स्त्रियों की भी उनकी मविनय सेवा", मनासुन्दरी द्वारा एक कोढ़ी के शृगार चेष्टा वर्णन करने मे पुरुषो को जो मानंद पाता साथ विवाहित होकर भी उसे कोढ़ से मुक्त कर लेना प्रादि है वह पुरुषो की दशा वर्णन करने में नही, इसी से स्त्रियो
२६. विवह सिरिहर । पूर्वावत, नई दिल्ली, १६५५, पृ० ३८ वीर : पूर्वोक्त, पृ० २०७, स० १०, क० १५ । १८३, स० ८. क० ५ ।
३६. स्वयभू : पूर्वोक्त, पृ० ३६, ख० २, स० २३, क०६ । ३०. नसेन : पूर्वोतत, पृ० ६७, स० २, क० १५।
४०. स्वयभू : पूर्वोक्त, पृ० २६६, ख १, स १८, क. ६ । ३१. विबुह मिरिहर : पूर्वोक्त, पृ. १४३, रा० ६. क. ० २।
४१. नरसेन : पूवोक्त, पृ० १७.२१, स० १ क. ३२. स्वयम् . पर्वोवत, पृ० ३५५, ख० २, स० ४१, ३० । ११।
४२ पुष्पदन्त : णायकुमारचरिउ, नई दिल्ली १९७२, ३३. स्वयभू : पूर्वोक्त, पृ० २२७, ५० १, स० १०, ५ ८
पृ० ४६, म० ३, क० ११ । ३४. पुष्पदन्न : पूर्वोवत, ० १७१, स० ६, ०२३।। ३५. कन कामर . पूर्वोवन, पृ० १५६, म० १० के० २४ ।।
४३ वीर : पूर्वोक्त, पृ० ५४ ५५, स० ३ क. १०.११ । २६. पदम्त सहर , दिल्ली, १९७२, पृ०८. पुरन्त वारजिणिदचरिउ, नई दिल्ली, १९७४. ४३, रा० २, क० ७८ ।
पृ० ५, स० प्रथम, क. ३। ६७ स्वयंभू . पूक्ति , पृ. २४५, रा. १५, क० ११। ४५. नरसन . पूर्वोक्त, पृ० २५, स० प्रथम, क. २३ ।