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देवपूजा और उसका माहाम्त्य
प्रो० उदयचन्द्र जैन, एम. ए.,
जैनधर्म ही नहीं किन्तु अन्य भारतीय धर्मों में भी प्रोः धावक दोनों के लिए समान रूप से प्रावश्यक है। प्राचीनकाल से ही पूजा का विशिष्ट स्थान रहा है। साथ साधु उक्त प्रकार का कृतिकर्म करके देवपूजा ही करता ही पूज्य का स्वरूप, पूजा की विधि और उसके उद्देश्य में है। यह बात पृथक है कि अपरिग्रही होने के कारण साधु भिन्नता भी रही है, जो कि अपने-अपने धर्म के अनुसार कृतिकर्म करते समय प्रक्षत प्रावि द्रव्य का उपयोग नहीं स्वाभाविक है। जब हम जैनधर्म में पूजा के विषय मे करता है और गहस्थ कृतिकर्म करते समय अक्षत प्रादि विचार करते है तो हम देखते है कि इस धर्म के दो मुख्य सामग्री का भी उपयोग करता है। स्तम्भ है-मुनि और गृहस्थ; और देवपूजा दोनों का यथार्थ बात यह है कि पूजा दो प्रकार से की जाती ही प्रावश्यक कर्तव्य है। यह अबश्य है कि दोनो की है- द्रव्य और भाव से। साधु जो पूजा करता है वह पूजा करने की विधि भिन्न-भिन्न है।
भाव पूजा है। मूलाचार मे यह भी कहा गया है कि देवदेवपूजा का प्राचीन रूप
पूजा अपने विभव के अनुसार करनी चाहिए। इस कथन
का तात्पर्य गृहस्थ के द्वारा की गई द्रव्य पूजा से है। कृतिकर्म देवपूजा के अभिप्राय को प्रकट करने वाला
मूलाचार की टीका में प्राचार्य वसुनन्दी ने कहा है कि एक प्राचीन शब्द है। यह एक व्यापक शब्द है जिसमे
जिनेन्द्र देव की पूजा के लिए प्रक्षन, गन्ध, धूप मादि देवपूजा के अतिरिक्त कुछ अन्य बातें भी समाविष्ट हैं।
जिस सामग्री का उपयोग किया जाय उसे प्रासुक और कृतिकर्म मुनि और गृहस्थ दोनो का प्रावश्यक कर्तव्य है।
निदोष होना चाहिए। भोजन ग्रहण, गमनागमन प्रादि क्रियानों में प्रवृत्ति करते
प्राचार्य अमितगति ने अपने श्रावकाचार में पूजा के समय लगे हुए दोषों का परिमार्जन करने के लिए साघु .
दो भेद करके उनका लक्षण इस प्रकार बतलाया है :को कृतिकर्म करना चाहिए। गृहस्थ की प्रवृत्ति तो
बचो विग्रहसंकोचो द्रव्यपूजा निगद्यते।। निरन्तर सदोष रहती ही है। अत: उसे भी कृतिकर्म
तत्र मानससकोचो भावपूजा पुरातनै । करना प्रावश्यक है। मूलाचार के षडावश्यकाधिकार मे
गन्धप्रसूनमान्नाह्य दीपघपाक्षतादिभिः । पूजाकर्म को कृतिकर्म का पर्यायवाची कहा गया है।
कियमाणाऽथवा ज्ञेया द्रव्यपूजा विधानतः ।। कृतिकर्म के पर्यायवाची अन्य दो नाम हैं चितिकर्म और विनयकर्म । कृतिकर्म का अर्थ नित्यकरणीय कमें भी किया
व्यापकाना विशुद्धानां जिनानामनुरागतः ।
गुणानां यदनुध्यानं भावपूजेयमुच्यते ॥ जा सकता है । मुनि के २८ मूल गुणो मे ६ अावश्यक
अर्थात् पूर्वाचार्यों के अनुसार वचन और शरीर की क्रिया बतलाये गये हैं जिनके नाम इस प्रकार हैं-सामायिक,
को रोकने का नाम द्रव्यपूजा है और मन की क्रिया को चतुविशतिस्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और
रोकने का नाम भावपूजा है । किन्तु स्वयं अमितगति के कायोत्सर्ग । षट्खण्डागम मे बतलाया गया है कि कृतिकर्म
मतानुसार गन्ध, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप और अक्षत तीनों सन्ध्या कालों मे करना चाहिए । तीनों सम्ध्या कालो
प्रादि से पूजा करने का नाम द्रव्यपूजा है और जिनेन्द्र मे जो कृतिकम किया जाता है उसमे सामायिक, चतु. के गुणो के चिन्तन करने का नाम भावपूजा है। विशतिस्तव और बन्दना इन तीनो की मुख्यता रहती है। प्राचार्य जिनसेन ने महापुराण के ३८वें पर्व के पातीनों सन्ध्याकालों में किया जाने वाला कृतिकर्म साधु रम्भ में