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देवपूजा और उसका माहात्म्य
जी ने सागारधर्मामृत मे श्रावक की दिनचर्या का वर्णन मूर्तिपूजा का प्रारम्भ मौर उपयोगिता करते हुए त्रिकाल देववन्दना के समय दोनों प्रकार से जैनधर्म में मूर्तिपूजन की परम्परा बहुत प्राचीनकाल पूजा करने का विधान किया है।
से प्रचलित है। द्वितीय शताब्दी ई०पू० के सम्राट् खार. वर्तमान पूजा विधि
वेल के शिलालेख मे ऋषभनाथ की मूर्ति का उल्लेख है वर्तमान पूजा विधि में वे सव गुण नही रह गये हैं जिसे मगध का राजा नन्द कलिंग विजय के बाद पाटलिजो षट्खण्डागम, मूलाचार प्रादि में प्रतिपादित है। पुत्र (पटना) ले गया था और जिसे खारवेल ने मगध पर त्रिकाल देववन्दना, प्रतिक्रमण और आलोचना की विधि चढाई करके पुनः प्राप्त किया था। इससे सिद्ध होता है समाप्तप्राय है । अब श्रावक का कृतिकर्म देवदर्शन और कि आज से लगभग २५०० वर्ष पूर्व राजघरानो तक से देवपूजा दो भागो मे विभक्त हो गया है। यद्यपि देव- जैनो के प्रथम तीर्थकर ऋषभदेब की मूर्ति की पूजा होती दर्शन भी पूजा का एक प्रकार ही है किन्तु उसे दर्शन ही थी। एक मौर्यकालीन मूर्ति पटना के संग्रहालय मे स्थित कहते है। जिन मन्दिर मे जाकर देव दर्शन करना प्रत्येक है। प्राचार्य कुन्दकुन्द ने पंचास्तिकाय मे प्ररहन्त. सिट श्रावक प्रौर श्राविका का नित्य कर्तव्य है। वह जिन चैत्य और प्रवचन भक्ति का उल्लेख किया है तथा मन्दिर में जाकर मूर्ति के समक्ष स्तुति पाठ करते हुए जिन प्रवचनसार मे देवता, यति मौर गुरु की पजा का विधान भगवान् को नमस्कार करके तीन प्रदक्षिणा देता है। यह किया है। उत्तरकाल में तो जिन प्रतिमा और जिन देवदर्शन है। पूजा करने के लिए पहले स्नान करके शुद्ध
मन्दिरो का निर्माण अधिक संख्या मे हुप्रा है। इसी युग वस्त्र पहिनकर सबसे पहले मूर्ति का जल से अभिषेक में प्रतिष्ठापाठो प्रादि की रचनाएं हुई है। पजन सास्य किया जाता है । कही-कही दूध, दधि, घृत, इक्षुरस और भी इस युग मे विशेषरूप से लिखा गया है। सर्वोषधिरस से भी अभिषेक करने की पद्धति है। अभि- जैनधर्म में प्ररहन्त, सिद्ध, प्राचार्य, उपाध्याय और पेक के बाद पूजा के प्रारम्भ मे जिस देव की पूजा करते
साधु ये पांच पद बहुत प्रतिष्ठित माने गये है। इन्हें पञ्च है उसका प्राह्वानन, स्णापन और सन्निधिकरण किया
परमेष्ठी कहते है। इन पांच परमेष्टियो मे से परहन्त जाता है। उसके बाद क्रमशः जल मादि पाठ द्रव्यों से
परमेष्ठी की मूर्ति जैन मन्दिरो में विराजमान रहती है। पूजन किया जाता है। अन्त मे पाठ द्रव्यो को मिलाकर
ये मूर्तियां ४ तीथंकरों में से किसी न किसी तीर्थकर की प्रर्घ चढाया जाता है। प्रत्येक द्रव्य चढ़ाते समय उसका
होती है किन्तु होती प्ररहन्त अवस्था की ही है, क्योंकि उद्देश्य बोलकर उसे चढ़ात है। जैस जल चढ़ाते समय
भरहन्त अवस्था के बिना वर्म तीर्थ का प्रवर्तन नहीं हो कहते हैं ---जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति
सकता है। अत धर्म तीर्थ के प्रवर्तक जैन तीकर्थरो की स्वाहा । अर्थात् जन्भ, जरा और मृत्यु के विनाश के लिए
मूर्तियाँ जैन मन्दिरों में विशेषरूप से पायी जाती हैं। जल चढ़ाता हूं। पूजा के अन्त में सबके लिए शान्तिपाठ
निराकार सिद्धों की मूर्तियां भी मन्दिर मे प्रायः रहती है। पढ़ा जाता है।
प्राचार्य, उपाध्याय और साधु की मूर्तियां भी कहीं-कही शान्ति पाठ मे
पायी जाती हैं। इनकी मृतियों में साधु के चिह्न पीछी क्षेमं सर्वप्रजाना प्रभवतु बलवान् धार्मिको भूमिपालः, और कमण्डलु अंकित रहते है। ये सभी मूर्तियां ध्यानस्थ काले काले च सम्यग्वर्षतु मघवा व्याधयो यान्तु नाशम् । अवस्था की होती है। प्रात्मध्यान मे लीन योगी की जैसी दुभिक्ष चौर-मारी क्षणमपि जगतां मास्म भूज्जीवलोके, प्राकृति होती है वैसी ही प्राकृति उन मूर्तियो की होती जैनेन्द्र धर्मचक्र प्रभवतु सततं सर्वसौख्यप्रदायि॥ है। उनके मख पर शान्ति, निर्भयता और निर्विकारता
यह पद्य मुख्य है और इसमें सम्पूर्ण राष्ट्र की सब विद्यमान रहती है। उनके शरीर पर कोई प्राभरण नही प्रकार से भलाई की कामना की गई है। शान्तिपाठ के होता और न हाथ में कोई अस्त्र-शस्त्र । दिगम्बर जैन मन्त मे विसर्जन किया जाता है।
मूर्ति निरावरण (नग्न) भोर मलकार रहित होती है।