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[पृष्ठ ३१ का शेषांश नही किया। दिवाकर ने जिसके द्वारा जैनधर्म ग्रहण किया, प्रप में लिखा है, कि जब अठारहवा यज्ञ महर्षि ने शुरू उसका स्पष्टीकरण प्रपेक्षित है, जिससे उनकी जांच की जा किया तब अग्रसेन के हृदय में हिंसा से प्रकस्मात् घृणा सके। इस तरह यह कया अनेक कल्पित पाख्यानों, किव उत्पन्न हो गई और यज्ञ का कार्य बन्द हो गया। अग्रोहा दन्तियों से पूर्ण है। उनका अन्यत्र से समर्थन नही होता। से उरू का सम्बन्ध प्रतीत नही होता । उस परित प्रतः वह प्रमाण कैसे मानी जा सकती है।
से अग्रसेन के साथ उसका सम्बन्ध जोडना . सचित उरू चरितम्
नही है। उरू चरितम् कर्ता के नाम से रहित खण्डित ग्रन्थ
अग्रसेन के भाई शूरसेन के नाम मे मथुरा का नाम है, जिसमें राजा उरू का चरित वणित है। उसका प्रय. शूरसेन पड़ा, यह कल्पना निराधार भौर प्रतिहासिक है। वालों के साथ कोई सम्बन्ध प्रतीत नही होता । ग्रन्थ में
र अग्रसेन और शूरसेन की एकता का क्या प्रमाण है ? अग्रसेन के भाई शूरसेन का उल्लेख किया गया है और उसे उरू को चन्द्रवंशी राजा लिखा गया है। उसका कोई शूरसेन देश बसाने वाला लिखा गया है । शूरसेन प्रदेश मथुरा पाराणिक उन
पौराणिक उल्लेख उपलब्ध नहीं होता। उसका मथुरा के के प्रासपाम का क्षेत्र है। यह कथन ऐतिहासिक दृष्टि से साथ क्या सम्बन्ध था यह भी कुछ ज्ञात नहीं होता। जान ठीक नहीं है। शूरसेन प्रदेश प्राचीन है और उसका पड़ता है कि लेखक ने इधर-उधर से सुनी-सुनाई बातों को सम्बन्ध यदुव शियो के साथ है। वे उसके शासक रहे है। कल्पना के प्राधार पर सगठिन करने का प्रयन्न किया है। कंस के मरने के बाद जरासंघ के भय से यादव लोग शरसेन प्रतः इससे इतिहास की शृखला का सम्बन्ध निश्चय करना प्रदेश को छोड़कर द्वारिका चले गये थे । शरसेन प्रदेश के दुष्कर है । कारण वहाँ की भाषा शौरसेनी कही जाती है । जैनियों के
एफ ६५, जवाहर पार्क (वेस्ट), कितने ही प्रन्थ शौरसेनी प्राकृत में लिखे गये है।
लक्ष्मीनगर, दिल्ली-५१ 000
आवश्यक सूचना अनेकान्त
साहू शान्तिप्रसाद जैन स्मृति अंक
इस अंक की प्रकाशन योजना मे किंचित परिवर्तन किया गया है। पूर्वज्ञापित योजना के स्थान पर प्रब यह अक दिसम्बर, १९७८ में प्रकाशित होगा और भनेकान्त के वर्ष ३१ की किरणें ३ मोर ४ इसमें समाहित होंगी।
-सम्पादक