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स्यादवाद : जैन-दर्शन की अन्तरात्मा
[] डा० रामनंदन मिश्र, पारा (बिहार)
'स्यात' शब्द लिइ-लकार का क्रियारूप पद भी होना एक प्रगिद्ध जैन चितक प्रकलक देव 'स्यात' का प्रयोग है और उसका अर्थ होता है -- होना चाहिए। लेकिन 'अनेकान्त' के अर्थ मे करते है। अपने ग्रथ 'तत्तार्थवातिक' यहाँ इस रूप में यह प्रयुक्त नही है। 'स्पात' विधिलिड (पृ० २५३) मे उन्होने लिखा है 'तम्मानेकान्त विधिमें बना हा तिडन्त प्रतिरूपक निपान है। इसका विचारादिप वहष्वर्थेषु संभवत्सु इह विवक्षावशात् शाब्दिक अर्थ है 'शायद' 'सम्भवत' प्रादि । प्रतः रयाद्वाद अनेकान्तार्थों ग्रह्यते।" स्वामी समंतभद्र अपनी पुस्तक को कभी कभी संभववाद (theory of probability
'प्राप्तमीमांगा' मे कहते है कि स्थाद्वाद वह सिद्धान्त है or may be) भी कहते है। प्रोफेपर बलदेव उपाध्याय
जो मदा एकात को अस्वीकार कर अनेकान्त को ग्रहण प्रपती पुस्तक 'भारतीय दर्शन" (पृष्ठ १५५) में 'स्यात' करता है। वस्तु अनन्तधर्मात्मक है -अनन्त धर्मक वस्तु ।
हमारे मभी निर्णय प्रावश्यक रूप में गापेक्ष तथा सीमित शब्द का अनुवाद शायद या स भवन करते है ; किन्तु यह अनुवाद सही नहीं है । 'शायद' शब्द सदेहवाद का सूचक
है । वस्तु गत् और असत् दोनों है। यह सामान्य भी है
और विशेष भी। यह स्थायी भी है और क्षणिक भी। है किन्तु जैन दर्शन सदेहवाद नही है। डा. देवराज ने अपनी पुस्तक "पूर्वी और पश्चिमी दर्शन" (७० ६५)
यह एक भी है और आनेक भी। यदि हम द्रव्य की दष्टि
मे वस्तु को देखते है तो यह यथार्थ, सामान्य, स्थायी में 'स्यात्' शब्द का कदाचित् (किसी समय) अनुवाद
तथा एक है किन्तु यदि हम इसे पर्याय की दृष्टि से देखते किया है। किन्तु यह अनुवाद भी भ्रमात्मक है क्योकि यह
है तो यह अयथार्थ, विशेष, क्षणिक तथा पनेक है। छ: संह का सकेत करता है। कभी-कभी 'स्यान' का
अन्धे मनुष्यो तथा हाथी की प्रसिद्ध कथा का तात्पर्य यही अनुवाद 'somehow' (किसी न किसी प्रकार मे) किया
है कि प्रायः सभी दार्शनिक मतभेदो तथा विवादो का जाता है जिन्तु यह भी राही अनुवाद नहीं है क्योकि इससे मख्य कारण है एक प्राशिक सत्यता को सम्पूर्ण सत्यता प्रज्ञातवाद की गंध मिलती है और जैन दर्शन अज्ञातवाद मानने की भूल करना । हमारे मनभेद का कारण यह है नही है। यद्यपि डा. एस ०सी० चटर्जी तथा डा०डी०एन० कि हम अपने विचारो को सर्वथा सत्य मानने लगते है। दत्त अपनी भारतीय दर्शन की पुस्तक मे 'स्यात्' के लिए इस तरह जैन दर्शन की दृष्टि में प्रत्येक वस्तु अनेक 'somehow' शब्द का प्रयोग करते हे तथापि वे इसका धर्मवाली है । न वह सर्वथा सत् ही है और सर्वथा प्रसत अनुवाद 'कथंचित्' (in some respect) करते है। ही है, न मर्वथा नित्य है पोर न सर्वथा अनित्य ही है। यह अनुवाद सही है। प्रोफेसर महेन्द्र कुमार जैन भी किन्तु किसी अपेक्षा से वस्तु सत् है तो किसी अपेक्षा से अपनी पुस्तक “जैन-दर्शन" (पृ० ५१८) मे 'म्यात' असत् है, किसी अपेक्षा से नित्य है तो किसी अपेक्षा शब्द का अनुवाद 'कचित' ही करते हैं। पं० कैलाश से अनित्य है । अत: सर्वथा सत्, सर्वथा प्रसत, सर्वथा चन्द्र शास्त्री अपने ग्रथ "जैन न्याय" (१० २६८-६९) नित्य, सर्वथा अनित्य इत्यादि एकान्तों का निरसन करके मे स्यान का अनुवाद किंचित्', 'कथ चित् ' तथा 'कथ चन्' बस्तु का कथचित् सत्, कर्थचित् असत्, कथंचित् नित्य, करते है । 'ग्यात' का अनुवाद कथचित होना चाहिए। कथचित् अनित्य मादि रूप होना अनेकान्त है और स्थात्' का प्रयोग सापेक्ष के अर्थ में किया जाता है। अनेकान्तात्मक वस्तु के कथन करने का नाम स्याद्वाद इस तरह स्याद्वाद का प्रथं होना चाहिए सापेक्षतावाद । है-अनेकान्तात्मकार्थकथन स्याद्वाद. ।