________________
स्याहार-जैन-दर्शनको अन्तरात्मा
(२)
स्व द्रव्य, दिक, काल तथा रूप की दृष्टि से प्रत्येक हम लोग देख चके है कि जैनों के प्रनमार वस्तु वस्तु मत् है तथा पर द्रव्य, दिक्. काल तथा रूप को मनन्त धर्मात्मक है। केवल सर्वज्ञ ही वस्तु के सभी धमों दृष्टि से प्रत्येक वस्तु प्रसत् है । 'घडा है' का अर्थ यह को जान सकता है। किन्तु हम लोगो जैसे प्रपूर्ण प्राणी नहीं है कि घडा सर्वथा सत् है। घडे का अस्तित्व म.
विशेष, रूप विशेष. स्थान विशेष तथा काल-विशेष के वस्तु को एक समय मे एक ही विशिष्ट दृष्टि से देखते है पौर इस तरह वस्तु के केवल एक पक्ष या धर्म का ही ज्ञान प्रनु र है। प्रतः यह कथान व्याघातक नही है कि घड़ा प्राप्त करते है। इस पाशिक ज्ञान को 'नय' कहते है- सत् पोर प्रसत् दोनो है (भिन्न दृष्टियों से)। एकदेश विशिष्टोऽर्थो नयस्थ विषयो मतः (न्यायावतार, श्लोक २६)'। इस पाशिक ज्ञान के प्राधार पर जो परामर्श (Judgement) होता है उसे भी 'नय' कहो
पाश्चात्य तर्कशास्त्र में परामों के साधारणतः दो हैं। प्रकलंक देव 'लघीयस्त्रय' (श्लोक ५५) में 'नय' की भद किग जाते है - प्रस्तिवाचक तथा नास्तिवाचक । परिभाषा इस प्रकार करते है--'नयो ज्ञातुरभिप्राय.'। किन्तु जन सात प्रकार का भेद मानते है। उपयुक्त हो अभिप्राय वह है जो वस्तु के एक पक्ष को स्पर्श करता है। भेद भी इनके अतर्गत है। परामर्श को जैन दार्शनिक 'नय' स्वामी समन्तभद्र के अनुसार, 'नय' वह है जो श्रत प्रमाण भी कहते है। जैन ताकिक प्रत्येक नय के साथ स्यात के द्वारा गृहीत अर्थ के विशेषो प्रर्थात् धर्मो का अलग- NEE जोडते है । स्यात् शब्द को जोड़ कर यह दिखलाना अलग कथन करता है। उन्होने अपनी प्रात्ममीमामा' चाहते है कि कोई भी नय एकान्त या निरपेक्ष रूप से (श्लोक १०६) मे लिखा है --'स्याद्वादप्रविभक्तार्थविशेष- सत्य नही है, बल्कि प्रापेक्षिक है। यह प्रश्न किया जा व्यञ्जको नयः।' विद्यानन्द स्वामी भी अपन 'तत्त्वार्थ- सकता है कि भग सात हो क्यो होते है ? जैन ताकिको के इलोकवातिक' मे 'नय' के इसी अर्थ को स्वीकार करते है। अनुगार इस प्रश्न का एक समाधान तो यह है कि मूल नय के दो मूल भेद है - द्रव्याथिक और पर्यायायिक । वस्तु
नय या भग तीन है और गणित के नियम के अनुसार के द्रव्याश या सामान्य रूप का ग्राही द्रध्याथिक नय है नीन के आपुनरुक्त विकल्प गात ही हो सकते है, प्रषिक और पर्यायाश या विशेषात्मक रूप का ग्राही पर्यायाथिक नही। दूसरा समाधान है कि प्रश्न सात प्रकार के ही नय है।
होने है। प्रश्न मात प्रकार के क्यो होत है ? इसका किसी वस्तु का ज्ञान तीन प्रकार से सभव है
उनर है कि जिज्ञासा सात प्रकार की होती है। जिज्ञासा दुर्नीति (bad judgement), नय (judgment) तथा
सात प्रकार की क्यों होती है ? क्योकि सशय सात प्रकार प्रमाण (valid judgement)। दुर्नीति का अर्थ है
के ही होते है। सशय सान प्रकार क्यो होत है ? क्योकि प्राशिक सत्यता को पूर्ण मत्यता के रूप में जानने की
वस्तु के धर्म ही मान प्रकार के है। भल करना ; जैसे यह कथन कि वस्तु निरपेक्ष रूप से
भारतीय दर्शन में विश्व के सम्बन्ध मे सत्, प्रसत्, सत है (सदेव) । किमी सापेक्ष सत्यता का कथन मात्र,
उभय तथा प्रनुभय ये चार पक्ष वैदिक काल से ही
विचार-कोटि मे रहे है । चार काटियो मे नीमगे उभयबिना यह कहे कि यह निरपेक्ष है या मापेक्ष नय कहा कोटि ती मत और प्रसनदो को मिलाकर बनाई गई है। जाता है। उदाहरणार्थ, यह कहना कि वस्तु सत है अन. मूल भग तो तीन ही है - सत्, प्रमत और अनुभय (सत्) । प्रमाण सापेक्ष सत्यता की उक्ति है, यह जानते अर्थात् प्रवक्तव्य । गणित के नियम के अनुसार तीन के हुए कि यह सिर्फ सापेक्ष है और विभिन्न दष्टियो से अपुनरुक्त विकल्प मात ही हो सकते है, अधिक नहीं। इसके भिन्न भिन्न प्रर्थ हो सकते हैं (स्यात मन)। जैन प्रत: जन ताकिक परामर्श के सात भेद मानते हैं जिसे दार्शनिको के अनुसार स्यात् विशिष्ट नय को प्रमाण सप्तभगी नय कहा जाता है। नय के मान भव कहते हैं।
निम्नलिखित है