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किरण १]
चरवाहा
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चने फैलते आए । घर जब आया, तो मिष्टदानाकी बना-हिःह ! विधिकी विलम्बना ?' फटकार पड़ी-उसपर ! वह जो दिन-भर उसका सुकृत कुछ न समझ सका, न उसने समझनेकी इन्तजार करते-करते खीज़ उठी थी!
कोशिशा की कुछ ! दिलचस्पी जो नहीं थी! वह सोच अभी सड़ी-धुनी चौखटपर पाँव भी नहीं रख रहा था-कितने चने लाया था, रह गए कितने ? पाया था कि वह चिल्लाकर बोली-'कहां रहारे, आज निस्तब्धता !!! मिष्टदाना इधर बैठी चिन्तामग्न अकृत ? यह क्या बाँध लाया है-पोटली-सी ?' है, अकृत उधर खड़ा सोच रहा है ! बीचमें चने वह गुमसुम!
रखे हैं-दोनों के बीच एक समस्याकी तरह ! ... ___ माँकी आँखें जो सुर्ख हो रही थीं ! पर, क्षण-भर देर तक चुप रहने के बाद वह बोली-'प्रकृत! अब में ही तब्दीली आई! उसे चेत हुश्रा-माँकी गुस्साको इस गाँवमें हम नहीं रहेंगे! सुबह चलना तय किया वह अभी शान्तकर सकता है । बेकार थोड़ा घूमा है-बस ! गुलामकी गुलामी कराना, मुझे नहीं है-आज ! मिहनतकर अन्न लाया है खानेके लिए- सुहाता ! कितना अभागा है तू? काश! आज तेरे कुछ मज़ाक नहीं! और तब कुछ दबंगपनके साथ पिता जीवित होते..?' वह बोला-'देखो तो माँ ! पोटली में क्या है !
और वह रोने लगी-अतीतकी स्मृतियाँ जो उसे माँ चुपचाप पोटली खोलने लगी। अकृत विजयी झकझोरें डालती थी! की तरह खड़ा रहा, मुँह प्रसन्नतासे चमक रहा था! माँने पोटली खोलकर अचरजसे कहा-'चने ?
[४] कहाँसे लाया, रे?'
बलभद्र सात लड़कोंका पिता है। बहुत जमाना प्रकृतका मुँह उतर गया-प्रसन्नता काफूर ! देखा है उसने ! गरीबी-अमीरीकी अनेक लीलाएँ खेल अन्यमनस्कनाके साथ वह बोला-'हाँ, चने हैं! चुका है। उम्रके साथ अनुभव भी पक चुका है उसका! पर, यह थोड़े क्यों हैं ? लाया तो बहुत था मैं ! सबसे और आज उसमें यह विशेषता है, कि वह हर बात ज्यादह ! बात क्या हुई-रें........?'
का गहरा अध्ययन करके आगे कदम धरता है ! और मिष्टदाना पुत्रकी विहलतासे पसीज-सी गई थी। तब उसके प्रत्येक कार्य में बुद्धिमानी, दृढ़ता और मानबोली-'ज्यादह लाया था ? कहाँ गए फिर ? कपड़ा वताका पर्याप्त सम्मिश्रण दिखाई देता है !.. तो नहीं फटा ?
वह गाँव-पति है ! भाग्यने उसे वह दोनों चीजें अकृत मौन !
दी हैं, जिन्हें दुनिया वाले मरते दम तक चाहते हैसच, कपड़ा फटा ही था ! वह बोली-रहने दे, वैभव और पुत्र !....."नहीं कुछ दिया है, तो सिर्फ दुख क्यों करता है ? जितने लाया है, वह कम नहीं आखिरी-साँस तक साथ देने वाला-गृहिणी सुख !... हैं ! पर, लाया कहाँसे है, यह तो कह ?'
घूमती-फिरती पुत्रको साथ लिए मिष्टदाना यहाँ अकृतने सब कह दिया!
आई ! वलभदने देखा-'दुखिया-गरीबिन हैमिष्टदाना सुनती रही । फिर बोली,-स्वरमें क्रिस्मतकी सताई! अवश्य ऊँचे कुलकी है!' वेदना थी, आत्मग्लानि थी, और थी दीनता,- बोला-'बहिन कौन हो तुम ?' मिष्टदानाने 'सुकृतपुण्यके यहाँसे लाया है यह ? उसकी नौकरी की कहा-'दुखिया !' थी-तूने ?'
'नहीं, ठीक परिचय दो-बहिन !'-बलभद्रने अकृत निरुत्तर!
प्राग्रह किया! वह पापही कहने लगी-'यही सुकृतपुण्य एक मिष्टदाना फिर कुछ छिपा न सकी! आग्रहकमि दिन मेरा सेवक था। और आज तू उसका सेवक जो उसे आत्मीयताके दर्शन हो रहे थे!...
नहीं कुछ दिन तक चाहते हैं
आखिरा-सासन