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१.२.
अनेकान्त
जैनाचार्य श्री भात्मानन्द-जन्म-शताब्दी स्मारक ट्रस्ट बोर्ड, त्रांबा कांटा, बहोरानो - जूनोमालो चौथा माला, बम्बई नं० ३ | मूल्य १11) रु० ।
यह प्रन्थ प्रायः पूर्वमें प्रकाशित अपने गुजराती संस्करणका, कुछ संशोधन और परिवर्धन के साथ, हिन्दीरूपान्तर है । इस संस्करणकी मुख्य दो विशेष ताएँ हैं । एक तो इसमें पारिभाषिक शब्दकोष और सटिप्पण मूलसूत्रपाठ जोड़ा गया है, जिनमें से शब्दकोषको पं० श्रीकृष्णचन्द्रजी सम्पादकने और सूत्र - पाठको पं० दलसुखभाई सम्पादकने तय्यार किया है। ये दोनों उपयोगी चीजें गुजराती संस्करणमें नहीं थीं । इनके तय्यार करने में जो दृष्टि रक्खी गई है वह पं० सुखलालजी के वक्तव्य के शब्दों में इस प्रकार है
“पारिभाषिक शब्दकोश इस दृष्टिसे तय्यार किया है कि सूत्र और विवेचनात सभी जैनजैनेतर पारिभाषिक व दार्शनिक शब्द संग्रहीत हो जायँ, जो कोशकी दृष्टिसे तथा विषय चुननेकी दृष्टिसे उपयुक्त हो सके। इस कोष में जैनतत्वज्ञान और जैन आचारसे सम्बन्ध रखने वाले प्रायः सभी शब्द आजाते हैं। और साथही उनके प्रयोगके स्थान भी मालूम हो जाते हैं । सूत्रपाठ में श्वेता म्बरीय और दिगम्बरीय दोनों सूत्रपाठ तो हैं ही फिर भी अभी तक छपे हुए सूत्रपाठों में नहीं ए ऐसे सूत्र दोनों परम्पराओंके व्याख्या प्रन्थोंको देखकर इसमें प्रथमवार ही टिप्पणी में दिये गये हैं ।"
- दूसरी विशेषता परिचयन्प्रस्तावनाकी है, और जो पं० सुखलालजी के शब्दों में इस प्रकार है"प्रस्तुत भावृति में छपा परिचय सामान्यरूपसे
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[वर्ष ३ किरण १
गुजरातीका अनुवाद होने पर भी इसमें अनेक महत्वके सुधार तथा परिवर्धन भी किये गये हैं । पहले कुछ विचार जो बादमें विशेष आधार वाले नहीं जान पड़े उन्हें निकाल कर उनके स्थान में नये प्रमाणों और नये अध्ययन के आधार पर खास महत्वकी बातें लिख दी हैं । उमास्वाति श्वेताम्बर परम्परा के थे और उनका सभाष्य तत्वार्थ सचेलपक्ष के श्रुतके आधार पर ही बना है यह वस्तु बतलाने के वास्ते दिगम्बरीय और श्वेताम्बरीय भूत व आचार भेदका इतिहास दिया गया है और अचेल तथा सचेल पक्षके पारस्परिक सम्बन्ध और भेदके ऊपर थोड़ा सा प्रकाश डाला गया है, जो गुजराती परिचयमें न था । भाष्य के टीकाकार सिद्धसेन गणि ही गंधहस्ती हैं ऐसी जो मान्यता मैंने गुजराती परिचयमें स्थिर की थी उसका नये अकाट्य प्रमाण के द्वारा हिन्दी परिचयमें समर्थन किया है और गन्धहस्ती तथा हरिभद्रके पारस्परिक सम्बन्ध एवं पौर्वापर्य के विषय में भी पुनर्विचार किया गया है। साथ ही दिगम्बर परम्परामें प्रचलित समन्तभद्रकी गंधहस्तित्वविषयक मान्यताको निराधार बतलानेका नया प्रयत्न किया है। गुजराती परिचय में भाष्यगत् प्रशस्तिका अर्थ लिखने में जो भ्रांति रह गई थी उसे इस जगह सुधार लिया है। और उमास्वातिकी तटस्थ परम्परा के बारेमें जो मैंने कल्पना विचारार्थ रखी थी उसको भी निराधार समझकर इस संस्करण में स्थान नहीं दिया है । भाष्यवृत्तिकार हरिभद्र कौनसे हरिभद्र थे - यह वस्तु गुजराती परिचयमें संदिग्ध रूपमें थी जब कि इस हिन्दी परिचयमें याकिनीसू रूपसे उन हरिभद्रका निर्णय स्थिर किया है ।"