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अर्थप्रकाशितः सदासुननी तामैं जिन चेत्यालय से, परमेष्ठीसहायनी अमराव जैन थे। मापने अपने अग्रवाल जैनी बहु बसें ॥ १३ ॥
मिता कीरतबन्दजीके सहयोगसे ही जैन सिद्धान्त
का अच्छा मान प्राप्त किया था और पाप • बहुजाता तिन मैं जु रहाय,
बड़े धर्मात्मा सबन थे तथा उस समय नाम तासु परमेष्ठि सहाय ।
पारामें अच्छे विद्वान समझ जाते थे। जैनग्रन्थमें रुचि बहु करे, उन्होंने साधर्मी भाई जगमोहनदासकी मिथ्या धरम न चित में धरै ॥ १४ ॥
तत्त्वार्थ विषयके जाननेकी विशेष रुचिको देखकर दोहा
स्वपरहितके लिये यह 'अर्थप्रकाशिका' टीका सब
से पहले पाँच हजार श्लोक प्रमाण लिली थी सो तत्त्वारथ सूत्रकी,
और फिर उसे संशोधनाविके लिये जयपुर रची वचनिका सार ।
प्रसिद्ध विद्वान पं० सदासुखदासजीके पास भेजा नाम ज अर्थ प्रकाशिका,
था। पण्डित सदासुखजीन संशोधन सम्पादनादि गिणती पाँच हजार ॥१५॥ के साथ टीकाको पल्लवित करते हुए उसे वर्तमान सो भेजी जयपुर विय,
११ हजार श्लोक परिमाणका रूप दिया है और
इसी यह टीका प्रायः पण्डिन सदासुखजीको नाम सदासुख जाय।
कृति समझी जाती है। सो पुरण ग्यारह सहस, करि भेजी तिन पास ॥१६॥ भक्त परिचय परमे इनना और भी साफ सवैया
ध्वनित होता है कि पण्डित सदासुखजीकी कृतियों
(भगवती आराधना टीका आदि) का उस समय अग्रवाल कुल श्रावक कीग्तचन्द,
पारा जैन प्रसिद्ध नगरों में यथेष्ट प्रचार हो चुका जुआरे माँहि सुवास ।
था और उनकी विद्वत्ता एवं टोका शक्तिका सिका परमेष्ठी सहाय तिनके सुत,
तत्कालीन विद्वानों के हृदय पर जम गया था। यही पिता निकट करि शास्त्राभ्यास ॥१७॥ कारण है कि उक्त पण्डित परमेष्ठीसहायजीको कियो ग्रंथ निज पर हित कारण, तत्त्वाथसूत्रकी टीका लिखने और उसे जयपुर लखि बहु रुचि जग मोहनदास।
पण्डित जीके पास संशोधनादिके लिये भेजनेकी
प्रेरणा मिली । इतना ही नहीं, बल्कि उसमें यथेष्ट सत्त्वारथ अधिगम सु सदासुख, परिवर्धन करनेकी अनुमति भी देनी पड़ी है। तभी
रास चहुँ दिश अर्यमकाश ,॥ १८॥ पंडित सदासुखजी उस टीकाको दुगनेसे मी भ. इन पञ्चोंसे स्पष्ट है कि भारा निकासी पंडित पिक विस्तृत करनेमें समर्थ हो सके हैं।