Book Title: Anekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 768
________________ वर्ष ३, दिन ] , . ऊंच-नीच-गोत्र-विषयक वर्ग ... विषयोंकी उन्नतिकी मीमा बनलाने का एक तरहका गोत्र' कहते हैं। और नीचे आचरणको 'नीच गोत्र' प्रकार है,और नीचगोत्री कहलाना भी अपने २ असंयमा- कहते हैं । इस गाथामें "संतानक्रमेणागत" पद पड़ा चरणोंकी उन्नति (वृद्धि) को श्रादि लेकर नाना हुवा है, जो जीवके अपने स्वयं के आचरणका विशेषण विषयोंकी अवनतिकी हदको कह कर समझाने का एक है; यह पद जीवके अपने स्वयं के आचरणका विशेषण तरहका तरीका है। होनेसे इसका अर्थ अपने पिता प्रपितादिकोंके कुलकी गायोक्त ऊँचनीचगोत्रका सर्वागी अर्थ । परिपाटीमे चला आया हुआ आचरण नहीं हो सकता; बल्कि जीवके अपने स्वयके पूर्व पूर्व आचरणों के संमार-स्थित प्रात्माके अन्दर गोत्र कम नामका भी संस्कार-जन्य इच्छामे उत्पन्न संतानरूप अपर-अपर एक धर्म है, जिसका आत्मा के सम्यक् चारित्रकी अाचरण होता है। इसलिये "संतान-क्रमेणागतजीवाउन्नति होनेस सम्बन्ध है । यह गोत्रकर्म, अग्रवाल, चरणस्य गोत्रमिति संज्ञा" इस गाथार्धका साफ अर्थ खडेलवाल, परवार आदि, और गोयल, सिंहल, वत्मल, हुश्रा-"पर्व पर्वके आचरणोंके संस्कार-जन्य इच्छासे मोनी, सेठी, पाटोदी, काशलीवाल आदि; तथा ब्राह्मण, उत्पन्न अपर-अपर पाचरणोंके संतानक्रमसे आये हुये क्षत्रिय, वैश्यादि; मूलसघ, सेनमंघ श्रादि और दूसरे जीवके अपने स्वयंके आचरणकी गोत्र संज्ञा है" । भी अनेक गण-गच्छादि भेद-प्रभेदोंको लिये हुए मनुष्य यहाँ जीवके अपने स्वयंके आचरणोंके संतानक्रमको समूहोंके बतलाने वाले संसारके सांकेतिक और व्यवहारिक और समझ लेना चाहिये । नीचे उसीका स्पष्टीकरण गोत्रधर्मोंस सर्वथा भिन्न है। इसके जैन सिद्धान्तमें किया जाता है:ऊंच गोत्र और नीच गोत्र ऐसे दो भेद माने गये हैं, इस प्रत्येक जीवात्माके अदर पाचरणोंकी दो प्रकारकी कारणस यह अात्माका स्वतन्त्र धर्म न रह कर सापेक्ष धारायें बहती हैं -एक अधोधारा और दूसरी ऊर्ध्वधारा। धर्म हो जाता है । अर्थात् नीच गोत्र के सद्भावमें ऊँच बहती हुई परिणामोंकी अर्ध्वधाराको जब कोई बुरा का होना और ऊंच गोत्रके मद्भावमें नीच गोत्रका कारण मिल जाता है तो उस बुरे कारणका निमित्त पाहोना तथा नीच गोत्र के अभाव में ऊच गोत्रका न होना कर ऊर्ध्वधाराका प्रवाह मुड़कर अधोरूपमें बहना प्रारम्भ और ऊंच गोत्रके अभाव में नीच गोत्रका न होना, इस हो जाता है और बहतेर अधोस्थानके अंत तक वह धारा प्रकारकी व्यवस्था वाला धर्म हो जाता है । इसका वर्णन पहुँच जाती है, और यदि बीचमें ही उसे कोई अच्छा श्री गोम्मटसार-कर्मकाण्डकी गाथा न० १३ मं किया कारण मिल गया तो वह उस अच्छे कारणका निमित्त गया है, जिसकी संस्कृत छाया इस प्रकार है पाकर पुनः अधःसे ऊर्ध्वरूपमें बहने लगती है और संतानक्रमेणणागत-जीवाचरणस्य गोत्रमिति संज्ञा। यहते २ ऊर्ध्वस्थानके अन्तको प्राप्त हो जाती है, तथा उपचं नावं चरणं उच्चैींच्चैर्भवेत् गोत्रम् ॥१३॥ आत्माको अपने शुद्ध-बुद्ध-सिद्धस्वरूपमें विराजमान इसका अर्थ बिलकुल साफ़ है और वह यह है कर देती है । इसी तरहसे बहती हुई परिणामोंकी कि-जीवके अपने स्वयके ( कि पिता-प्रपितादिकोंके) अधोधाराको जब कोई अच्छा कारण मिल जाता है तो आचरणकी 'गोत्र' संज्ञा है, ऊंचे आचरणको 'ऊँच उस अच्छे कारणका निमित्त पाकर उस अधोधाराका

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