Book Title: Anekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 822
________________ व, निय] गोकर्मकारकी बुद्धि-पतिके विचार पर प्रकाश ७५ गाथाओंका त्रुटिन होना बताया था उसमें शाहगढ़के उस मंदिर-भण्डारसे कर्मकाण्डकी अब कोई सन्देह बाको नहीं रहता। कर्मप्रकृतिकी भी एक प्रति मिली है, जो अधरी है और जिसमें उस प्रतिका वह अतिम अंश, जिसके साथ मन्थ. शुरूके दो अधिकार पुरे और तीसरे अधिकारकी प्रति समाप्त हो जाती है। इस प्रकार है-- कुल ४० गाथाओं में से २५ गाथाएँ हैं । यह अन्य "इति भीनेमिचन्द्रसिद्धान्तवाकयतिविरचितकर्म- प्रति बहुत जीर्ण-शीर्ण है,हाथ लगानेसे पत्र प्राय टूट कारस्य प्रथमशः समास: शुभमनु लेखकपाठकयोः जाते हैं । इसका शेष भाग इसी तरह टूट-टाट कर अथ संवत् १५२० वर्षे माधवदी। रविवासरे।" नष्ट हुआ जान पड़ता है । इसके पहले 'प्रकृति यहाँ पर इम कमप्रकृतिको प्रतिकी विशेषताके समुत्कीर्तन' अधिकारमें भी १६० गाथाएँ हैं, सम्बन्धमें इतना और भी नोट कर देना आवश्यक प्रत्येक गाथा पर बजग अलग न न देकर अधि. है कि इसकी टिप्पणियों में सिय प्रयि मयि और कारके अन्तमें १६० नं० दिया है। इस प्रकरण में 'धम्मा-पंसा-मेघा' इन दो गाथाओंको प्रक्षिप्त मात भी उक्त कर्मप्रकृति वाली ७६ गाथाएँ (५+१) सूक्षित किया है और उन्हें सिद्धान्तगाथा बताया ज्योंकी त्यों पाई जाती हैं। है, जिनमें में 'सिय भत्यि पत्यि' नामकी गाथा कर्मकांडकी एक दूसरी प्रति, जिसकी पत्र कुन्द कुन्दाचार्य के 'पंचास्तिकाय' की १४ नं. की संख्या ५३ है और जो सं० १७०४ में मुगल बादगाथा है। साथ ही,इस प्रकरणकी कुल गाथाभोंकी शाह शाहजहाँके राज्यकालमें लिखी हुई है अपने संख्या १६० दी है अर्थात पारा-सिद्धान्त भवनको घर पर ही पिताजीके संग्रहमे उपलब्ध हुई है। प्रतिसे इसमें निम्न एक गाथा अधिक है: यह संस्कृतटीका-साहिन है । इसमें कर्मकाण्डका प्रथम अधिकार ही है, गाथा संख्या १६० दी है पराज-रस-गंध फासा-चपउइग-सत्त सम्ममित्त । और इसमें भी वे ७६ गाथाएँ ज्योंकी त्यों पाई होतिबंधा-बंधक पथ-पब संवाद-सम्म। जाती हैं। संस्कृत टीका शानभूषण-सुमविकीर्ति यहां पर यह बात भी नोट कर लेनेकी है कि की बनाई हुई है। इसके अन्तके दो अंश नीचे कर्मप्रकृतिकी यह प्रति जिस सं० १५२७ की लिखी दिये जाते हैं.हुई है उमी वक्त के करीबकी बनी हुई नमिचन्द्रा- ति सिद्धांतज्ञानावर्तिमीनेमिचन्द्रविरचित. चार्यकी 'जीवतत्वप्रबोधनी' नामको संस्कृत टीका कर्मकांडस्य टीका समासं (सा)" है, जिसके वाक्योंको प्रोफेसर साहबन उद्धृत किया है और यह कल्पनाकी है कि उम का वर्तमान "भूबसचे महासाधुलचमीचंद्रो यतीश्वरः । में उपलब्ध होने वाला पाठ पूर्व-परम्पराका पाठ तस्य पादस्य वीरेंदुर्विदुडो विश्ववेवितः ॥ १॥ है। और इससे यह मालूम होता है कि कर्मकांडके तवववे दयामोधिानभूषो गुणाकरः । प्रथम अधिकार में उक्त ७५ गाथाएँ पहलेस हो टोक हि कर्मकांडस्य च सुमतिकीर्तियुक् ॥ २॥" संकलित और प्रचलित हैं।

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