Book Title: Anekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 823
________________ अनेकान्त पाश्विन, वीर निर्वास सं०२४१॥ "भट्टारक श्रीशानभूषणनामाकिता सूरिसुमति- लखनमें कुछ भी मार मालूम नहीं होता किकीतिविरचिता कर्मकांडटीका समाप्ता ॥ ॥ संवतु “यदि वह कृति ( कर्मप्रकृति ) गोम्मटसारके कर्ता १७०४ वर्षे जेठ बदि १४ रविदिवसे सुभक्षित्रे की ही है तो वह अब तक प्रमिद्धिमें क्यों नहीं श्रीमूलसंधे सरस्वती गच्छे बलात्कारगणे श्री भाई।"वह काफी तौरमे प्रसिद्धि में आई जान पड़ती आचाये कुंदाकुंदान्वये श्रीब्रह्मजिनदास उपदेने है । इस विषयमें मुख्तार साहब (मम्पादक धर्मापुरी प्रस्थाने मालवदेने पातिसाहि मुगल 'अनेकान्त')मे भी यह मालूम हुआ है कि उन्हें बहुत श्री साहिजहाँ ।" से शास्त्र भण्डारों में कमप्रकृति नामसे कर्मकाण्डक कर्मकांडकी तीसरी प्रति पं० हेमराजजीकी प्रथम अधिकारको प्रतियोंको देखनेका अवमर भाषोटीकासहित, तिगोड़ा जि० सागर के मंदिरकं मिला है। शास्त्रभंडारसे मिली है, जो संवत १८२९ की इस मम्पर्ण विवेचन और प्रतियों के परिचयकी लिखी हुई है, पत्र संख्या ५४ है । यह टीका भी रोशनी परमे मैं ममझना हूँ इम विपयमें अब कोई कर्मकाण्डकं प्रथम अधिकार 'प्रकृतिममकीतन'की सन्देह नहीं रहेगा कि कर्मकाण्डका मुद्रित प्रथम है और इसमें भी १६० गाथाएँ हैं जिनमें उक्त ७६ अधिकार जरूर त्रुटित है, और इलिये प्रोफेसर गाथाएँ भी शामिल हैं। साहबन मेरे लेख पर जो आपत्तिकी है वह किसी कर्मप्रकृतिकी अलग प्रतियों और कर्मकाण्डकी तरह भी ठीक नहीं है । आशा है प्रोफेसर साहब उक्त प्रथमाधिकारकी टीकाओं परसं यह स्पष्ट का इमसे समाधान होगा और दूसरे विद्वानों कि कर्मकाण्डकं प्रथम अधिकारका अलग रूपमें हृदयम भी यदि थोडा बहुत सन्देह रहा होतो वह बहुत कुछ प्रचार रहा है। किसीन उसे 'कर्मप्रति भी दूर हो सकेगा। विद्वानोंको इस विषय पर के नामसे किसीने 'कमकाण्डक प्रथम अंश'के नामसं अब अ' : अब अपनी स्पष्ट सम्मति प्रकट करनेकी जरूर और किसीने 'कर्मकाण्ड' के ही नामसे उल्लेखित कृपा करना चाहिय । किया है। ऐसी हालतमें प्रोफेसर साहबकं इस वीरसेवामन्दिर, सरसावा, ता०२१-१०-१९४०

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