Book Title: Anekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 820
________________ वर्ष, निण १२] गोकर्मकांडको बुद्धि पूर्तिके विचार पर प्रकारा जा सकता है-परिशेष न्यायमे अमुक गाथाका लगा कर स्पर्श तक पचाश कर्म प्रकृतियां होती भाशय लिया जा सकता है, और हैं। " जैसा कि प्रोफेसर साहबने समझ लिया एक स्थान पर यहाँ तक भी लिखा है कि "यहां है, बल्कि कथनका आशय यह है कि देहसे स्पर्श तथा आगामी त्रुटि-पूर्ण अँचने वाले स्थलों पर पर्यंत जो प्रकृतियां होती हैं उनमेंमें ५० प्रकृतियाँ कर्ताका विचार स्वयं भेदोपभेदोंके गिनानेका यहाँ पुद्गनविपाकीके रूपमें प्रहणकी जानी नहीं था। वह मामान्य कथन या तो उनकी रचना चाहिये । शरीरमं सशं पर्यंत प्रकृतियों की संख्या में आगे पीछे आचुका है या उन्होंने उसे सामान्य जरूर ५२ होती है और उनमें विहायोगतिकी जानकर छोड़ दिया है"। परन्तु यह कहीं भी प्रशस्त-अप्रशस्तके भेदमे दो प्रकृतिणं भी शामिल हैं; नहीं बताया कि उक्त गाथाओंको ग्रन्थमें त्रुटित परन्तु ये दोनों प्रकृतियां कर्मकाण्डकी ४९-५०० मानकर शामिल कर लेनमें क्या विशेष बाधा की गाथाओंमें जीवविषाकी प्रकृतियोंकी संख्यामें उत्पन्न हो सकती है ? सिर्फ एक स्थल पर थोड़ा- गिनाई गई हैं। इस विशेष विधानके अनुसार सा विरोध प्रदर्शित किया है, जो वास्तवमें विरोध उन ५२ प्रकृतियोंमेंसे इन दो प्रकृतियोंको, जो कि न होकर विरोध-सा जान पड़ता है और जिसका उम वर्गकी नहीं हैं-पुद्गलविपाकी नहीं हैंस्पष्टीकरण इस प्रकार है: निकाल देने पर शेष प्रकृतियाँ ५० ही रह जाती हैं, ___ कर्मकांडमें 'देहादी फासंता परणासा' नामकी जिनकी गणना पुद्गलविपाकी प्रकृति में की गई एक गाथा नं ४७ पर है, जिसमें पुद्गलविपाकी है। चनांचे कर्मप्रकृति प्रन्थके टिप्पणमें भी, जो ६२ प्रकृतियों की गणना करते हुए देहसे स्पर्श सं० १५२७ की लिखी हुई शाहगढ़की प्रति पर पर्यंत नामकर्मकी जो प्रकृतियाँ हैं उनमेंसे पचास पाया जाता है, ऐसा हो आशय व्यक्त किया गया प्रकृतियोंके ग्रहण करनेका विधान है । इस गाया है। यथा:को लेकर प्रोफेसर साहब यह आपत्ति करते हैं- देहादिस्पर्शपयंतप्रकृतीनां मध्ये विहायोगति ब्यावस्थ ___ "कर्मकांडकी गाथा नं०४७ में स्पष्ट कहा है शेषपंचाशत् प्रकृतीनां संख्याऽत्र वाक्ये विवपिता" कि देइस लेकर स्पर्श तक पचास प्रकृतियाँ होती हैं इससे स्पष्ट है कि गाथा नं. ४७ के जिस किन्तु कर्मप्रकृतिको गाथा नं० ०५ में दो प्रकारकी भाशयको लेकर प्रोफेसर साहबने जो भापत्ति विहायोगति भी गिना दी गई है, जिससे वहां खड़ी की है वह उसका आशय नहीं है और शरीरसे लगाकर स्पर्श तककी संख्या ५२ हो गई इसलिये वह भापति भी नहीं बन सकती। है, अब यदि इन ( ७५ से २ तक) गाथाओंको यहां पर मैं इतना और भी प्रकट कर देना हम कर्मकांड में रख देते हैं तो गाथा नं०४७ के चाहता हूँ कि प्रोफेसर साहबने गोम्मटसारको वचनसे विरोध पड़ जाता है।" जिस अर्थमें सार प्रन्थ समझा है उस अर्थमें वह यह आपकी भापत्ति ठीक नहीं है क्योंकि सार अन्य नहीं है, वह वास्तव में एक संग्रह ग्रंथ है, गाथा नं० ४७ में यह नहीं कहा गया कि-"देहसे जिसे मैं 'गोम्मटसार संग्रह प्रन्थ है' इस शीर्षकरें ।

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