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अनेकान्त
हैं वैसी ही निरुपित हैं। अगर तिन विषे प्रसंग पाय व्याख्यान हो है, सो कोई तो जैसाका तैसा हो है, कोई प्रन्थकर्ताका विचारके अनुसार होय, परन्तु प्रयोजन अन्यथा न हो है।"
"बहुरि प्रसँग रूप कथा भी ग्रंथकर्ता अपने विचार अनुसार कहे जैसे “धर्मपरीक्षा" विषें मूर्खनिको कथा लिखी, सो एही कथा मनोबेग कही थी, ऐसा नियम नाहीं; परन्तु मूर्खपनाको ही पोषती कोई बार्ता कही, ऐसा अभिप्राय पोषे है । ऐसे ही अन्यत्र जानना ।"
( मोक्षमार्ग प्र०, पं० टोडरमलजी ) अतएव कल्पित कथाओंके साथ साथ सिद्धातों की संगति नहीं बैठ सकती है । सिद्धान्तोंकी संगति तो उन्हीं कथाओं के साथ बैठेगी जो ऐतिहासिक होंगी ।
मेरा ऐसा ख्याल है कि दृष्टान्त प्रामाणिक चीज है क्योंकि वह प्रत्यक्ष हो चुका है । दृष्टांतों परसे तो सिद्धान्त बने हैं, जैसे उच्चारणोंपर से व्याकरण बना | अथवा दृष्टांत ( अंतमें दिखाई देने वाली चीज़ ) और सिद्धांत ( अंतमें सिद्ध होने वाली चीज ) एक ही चीज तो है ।
ककी कथा कल्पित जान पड़ती है। उसका यही उद्देश्य नजर आता है कि जिनपूजा के फलसे
[ आश्विन, वीर निर्वाच सं० २०१६
तिर्येच भी देव हो सकता है तो मनुष्य की तो बात ही क्या ?
और भी ऐसी कथाएँ हैं जैसे सुदृष्टि सुनारकी कथा | कथानक यों है कि - अपनी खीने मैथुन करते ममय सुदृष्टि सुनार को, उसके वक्र नामक शिष्यने जो कि सुदृष्टिकी स्त्री 'विमलामे लगा हुआ
था- व्यभिचार करना था, मार डाला | मर कर वह अपनी ही स्त्रीके गर्भ में आगया । जन्मा और बड़ा होने पर जातिम्मरण हो जानेसे उपन सब बात जानी, तब उसे वैराग्य हो आया। मुनि दीक्षा ली, और तपस्या करके मोक्ष चला गया । - अब देखिये, सिद्धान्तसे तो इसका मेल ( संगति) नहीं बैठता है; क्योंकि सिद्धान्त तो यह है किएक तो सुनार दूसरा व्यभिचारज, दोनों तरहसे शूद्र
होने से वह मोक्ष नहीं जा सकता । परन्तु प्रयोजन (उद्देश्य से इसका मेल बराबर बैठता है । उद्देश्य यह दिखानेका था कि देखो, संसार कैसा विचित्र है कि पिता खुद ही अपना पुत्र भी हो सकता है और स्त्री का पति भी उसका पुत्र बन सकता है !
आशा है, इस मेंडक सम्बन्धी शंका पर कोई सज्जन जरूर प्रकाश डालेंगे ।