Book Title: Anekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 813
________________ oku अनेकान्त उपसंहार मैं हूँ प्रो० साहब के समीक्षा लेखकी अत्र ऐसी कोई खास बात अवशिष्ट नहीं रही जो आलोचना के योग्य हो और जिसकी आलोचना एवं परीक्षा न की जा चुकी हो। अतः मैं विराम लेता हुआ उपसंहाररूप सिर्फ इतना ही कहना चाहता हूँ कि कार के इस संपूर्ण विवेचन एव परीक्षण परसे जहाँ यह स्पष्ट है कि मेरी 'सम्पादकीय विचारणा' मे प्रो० साहबके पूर्व लेखको कोई खास बात विचारसे छूटा नहीं थी अथवा छोड़ी नहीं गई थी उनके लेख के चारों भागों के सभी मुद्दों पर यथेष्ट विचार किया गया था और इसलिये अपने समीक्षा-लेखके शुरू में उनका यह लिखना कि "मी युक्ति (प्रस्तुत भाष्य में षट् द्रव्योंका विधान न मिलने मात्रकों बात) के आधार पर मुख्तारसाहबने मेरे दूमरे मुद्दोंको भी असंगत ठहरा दिया है उन पर विचार करने की भी कोई श्रावश्यकता नहीं समझी" मरासर ग़लत बयानीको लिये हुए है, वहां यह भी स्पष्ट है कि प्रो० साहबकी इम समीक्षा में कुछ भी - रत्ती भर भी सार नहीं है, गहरे विचारके साथ उसका कोई सम्बाध नहीं, वह एकदम निष्प्राण- बेजान और समीक्षा पदके अयोग्य समीक्षाभास है । इसीसे 'सम्पादकीय विचारणा'को सदोष ठहराने में वह सर्वथा श्रममर्थ रही है | और इसलिये उसके द्वारा प्रो० माहत्रका वह श्रभिमत सिद्ध नहीं हो सकता जिसे वे मिद्ध करके दूसरे विद्वानोंके गले उतारना चाहते थे अर्थात् (१) तत्वार्थ सूत्रका प्रस्तुत श्वेताम्बरीय [आश्विन, वीरनिर्वाय सं० २४३६ भाष्य अपने वर्तमानरूप में कलकके सामने मौजूद था श्र फलंकदेव उससे अच्छी तरह परिचित थे, (२) अकलंकने अपने राजवार्तिक में उसका यथास्थान उपयोग किया है, (३) अकलंक ने 'अहस्प्रवचने', 'भाष्ये' और 'मध्यं' जैसे पदके प्रयोगद्वारा उस भाष्य के अस्तित्वका स्पष्ट उल्लेख किया है, (४) अकलंक उसे 'स्वोपज्ञ' स्वीकार करते थे - तत्वार्थसूत्र और उसके भाप के कर्ताको एक मानते थे, और (५) अकलं कने उसके प्रति बहुमानका भी प्रदर्शन किया है, इनमें से कोई भी बात सिद्ध नहीं होती। साथ ही, यह भी स्पष्ट है कि प्रो० साहबकी लेखनी बहुत ही श्रसावधान है वह विषयका कुछ गहरा विचार करके नहीं लिखती, इतना ही नही, किन्तु दूसरोके कथनों को ग़लत रूपम विचारके लिये प्रस्तुत करता है और ग़लत तथा मन-माने रूप में दूसरोंके वाक्योंको उद्धृत भी करती है। ऐसी असावधान लेखनीके भरोसे पर ही प्रो० साहब 'गजवार्तिक' जैसे महान् ग्रथका सम्पादन-भार अपने पर लेने के लिये बचत हो गये थे, यह जान कर बड़ा ही श्राश्रर्य होता है !! अन्तमें विद्वानोंस मेरा मादर निवेदन है कि वे इस विषय पर अपने खुले विचार प्रकट करने की कृपा करें और इस सम्बन्ध में अपनी दूसरी खोजोंको भी व्यक्त करें, जिससे यह विषय और भी ज्यादा स्पष्ट होजाय । इत्यलम् वीरसेवा मन्दिर, मरसावा, ता० १८-१०-१६४०

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