Book Title: Anekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 812
________________ वर्ष ३ रिस १२ 1 प्रत्युत इसके, सर्वार्थसिद्धि में "यथा शरीरं पुद्गलवग्य प्रचयात्मकं तथा धर्मादिष्वपि प्रदेश प्रचयापेचया कायाहव काया इति" इस वाक्य के द्वारा जो भाव व्यक्त किया गया है उसीको लेकर उक्त वार्तिक बना है। दूसरा वार्तिक सर्वार्थसिद्धि के "किमर्थ: कायशब्दः ? प्रदेश बहुत्वज्ञापनार्थ: " इन शब्दों पर बना और तीसरा वातिक सर्वार्थसिद्धि परसे कैसे बना, यह बात ऊपर उद्धृत 'विचारणा' में दिखलाई ही जा चुकी हैं। ऐसी हालत मे उक्त तीनों वार्तिकों का सब से अच्छा बुद्धिगम्य आधार सर्वार्थमद्धि हो सकती हैं न कि भाष्य की उक्त पंक्ति । राजवार्तिक की तीन पंक्तियों में जब एक पंक्ति ही भाष्य परमं उपलब्ध नहीं होती तब भाष्यकं साथ उसका अधिक साम्य कैसे हो सकता है ? और कैसे उक्त पंक्ति पर तीन वार्तिकांक बनने की बात कही जा सकती है ? हाँ, समीक्षा-लेखकी समाप्ति करते हुए प्रो० साहबने यह भी एक घोषणा की है कि“समानता,सर्वार्थसिद्धि और राजवार्तिक में भी है । परन्तु यहां भाष्य और राजवार्तिककी उन समानताओंसे हमारा अभिप्राय है जिनको चर्चा तक सर्वार्थसिद्धन नही ।" इस परसे हर कोई प्रो० साहब से पूछ सकता है कि भाष्यकी पंक्ति परसे जिन तीन वार्तिकांक बनाये जानेकी बात कही गई है उनके विषय की चर्चा क्या सर्वार्थसिद्धि में नहीं है ? यदि हैं तो फिर उक्त घोषणा अथवा विज्ञप्ति कैसी ? प्रो० जगदीशचन्द्र और उनकी समीक्षा अब रही परनागु के लक्षण की बात, भाष्य पर से जो लक्षण उद्धृत किया गया है वह भाष्य में उस रूपसे नहीं पाया जाता । भाष्य के अनुसार उसका रूप है – 'अनादिरमध्योऽप्रदेशो हि परमाणुः । ३ नहीं मालूम प्रो० साहबने 'अप्रदेश:' पद का परित्यागकर अधूरा लक्षण क्यों उद्धृत किया ? प्रदेशों के कथनका तो खास प्रसंग ही चल रहा था और परमाणुके उनका निषेष करने के लिये ही 'नायो:' सूत्र का अवतार हुआ था, उसी प्रदेश- निषेधात्मक पद को यहाँ छोड़ दिया गया, यह आश्चर्य की बात है ! अस्तु; सर्वार्थसिद्धि में प्रकरणानुसार "श्रणोः प्रदेशा न सन्ति" इस वाक्य के द्वारा परमाणु க் प्रदेशों का ही निषेध किया है, बाकी परमाणुओं का लक्षण अथवा स्वरूप "प्रणवः स्कन्धाश्च" सूत्र की व्याख्या में दिया है, जो इस प्रकार हैं "सौम्यादात्मादय श्रात्ममध्या आस्मान्ताश्च" । साथ ही, इम की पुष्टि में 'उक्तं च' रूपसे "अतादि प्रत्तम " नाम की एक गाथा भी उद्धृत की है, जो श्री कुन्दकुन्दाचायक 'नियमसार' की २६वीं गाथा है। अकलंक ने भी गाथा- सहित यह सब लक्षण इसी सूत्र की व्याख्या में दिया है । 'नायो' सूत्र की व्याख्या में परमाणु का कोई लक्षण नहीं दिया । प्रो० साहब ने जो वार्तिक उद्धृत किया है वह और उसका भाष्य इस शंका का समाधान करने के लिये अवतरित हुए हैं कि परमाणु के आदिमध्य और अन्तका व्यपदेश होता है याकि नहीं ? यदि होता है तो वह प्रदेशवान् ठहरेगा और नहीं होता है तो खर विषाण की तरह उसके अभाव का प्रसंग आएगा? ऐसी हालत में यह समझना कि सर्वार्थसिद्धिकार ने परमाणु का लक्षण नहीं दिया अथवा वे इस विषय में मौन रहे हैं और अकलंक ने उक्त भाष्य का अनुसरण किया है, नितान्त भ्रममूलक जान पड़ता है ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 810 811 812 813 814 815 816 817 818 819 820 821 822 823 824 825 826