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भनेकास
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[भारियन, बीर निव सं०२४॥
तत्वार्थाधिगम सूत्रका जान पड़ता है, सर्वथा नहीं। क्या इष्ट है, यह भी स्पष्ट नहीं होता।" ( इसके बाद श्राभ्यन्तर अथवा साहित्यके पर्वापरसम्बन्धकी दृष्टिसे सिद्धसेनगणिकाः वह वाक्यं फिरसे दिया है, जो प्रो० विचार करने पर वह 'अहंपचनहृदय' का वाचक जान साहबके चौथे भागको युक्तियोंका उल्लेख करते हुए पडता है, जिसके स्थान पर वह या तो गलत छपा है ऊपर उद्धत किया जाचुका है।)
और या उसके लिये संक्षिप्त रूपमें प्रयुक्त हुआ है, जैसा परीषा-उक्त वाक्यमें प्रयुक्त हुए "मात्र कि ऊपर जाहिर किया जाचुका है।
उसके भाष्य के लिये नहीं" इन शब्दों परसे 'प्रायः' रही कथनके समर्थनमें कोई युक्ति न देनेकी शब्दके इष्टको सहज ही में समझा जासकता है । वह शिकायत, वह बड़ी ही विचित्र जान पड़ती है ! वह बतलाता है कि 'महत्प्रवचन' विशेषण, जो 'तत्वार्थाकथन तो 'विचारणा' में पुक्ति देनेके अनम्तर ही धिगम' नामक सूत्रके ठीक पूर्व में पड़ा है वह अधिकांश "इसलिये प्रकटरूपमें" इन शब्दोंसे प्रारम्भ होता है। में अपने उत्तरवर्ती विशेष्य ( तत्वार्थाधिगम ) के लिये "उक्तहि महत्प्रवचने 'इम्यानया निर्गुणा गुणा' इति," ही प्रयुक्त हुआ है। क्योंकि दूसरे नम्बर पर पड़े हुए इस वाक्यमें गुणोंके लक्षणको लिये हुए जिस सूत्रका भाष्य' का "उमास्वातिवाचकोपजसूत्र" यह विशेषण उल्लेख है वह चूंकि तत्वार्थाधिगमसूत्रके पांचवें अध्या- भाष्य शब्दके साथ जुड़ा हुआ है और तीसरे नम्बर पर यका ४० वा सूत्र है, इसलिये प्रकटरूपमें 'महत्पव- पड़ी हुई 'टका' के दो विशेषण-भाष्यानुसारिणी' और चन' का अभिप्राय यहाँ उमास्वातिके मूलतत्वार्थाधि- 'सिद्धसेनगणिविरचिता'-उसी टीकायां पदके श्रागे-पीछे गमसूत्रका जान पड़ता है, यह कथन क्या प्रो. साहब लगेहुए हैं। इस तरह उक्त वाक्यमें मूल तत्त्वार्थाधिगम की समझमें युक्तिविहीन है ? यदि है तो ऐसी समझ सूत्र,भाष्य और टीका तीनों ग्रन्थों के मुख्य विशेषणोंकी की बलिहारी है ! और यदि नहीं तो कहना होगा कि अलग अलग व्यवस्था है। मूल सूत्र और भाष्यका एक समीक्षा में युक्ति न देनेकी शिकायत करके 'विचारणा' ही प्रन्थकर्ता माने जानेकी हालतमें मूलसूत्र (तस्वार्थाको गलतरूपमें प्रस्तुत किया गया है।
धिगम) के 'अहस्पवचन' विशेषणको वहाँ कथंचित् ___ यहाँप र इतना और भी जान लेना चाहिये कि भाष्यका विशेषण भी कहा जासकता है--सर्वथा नहीं। 'विचारणा के शुरू में जो यह पछा गया था कि राज परन्तु इसका यह श्राशय नहीं कि जहाँ भी 'अर्हत्प्रवचन' वार्तिक के उक्त वाक्यमें उल्लेखित 'अईयवचन' से का उल्लेख देखा जाय वहाँ उसे तत्वार्थाधिगमसूत्रका तत्वार्थभाष्यका ही अभिप्राय है-मूलसूत्रका नहीं,ऐसा .. प्रस्तुत भाष्य समझ लिया जाय । ऐना समझना निताजो प्रो० साहबने घोषित किया है वह कहाँसे और कैसे' न्त भ्रम तथा भूल होगा । इसी अनेकान्तका द्योतन फलित होता है ? उसका समीक्षामें कोई उत्तर अथवा · करनेके लिये उक्त वाक्यमें 'प्रायः'' तथा 'मात्र' जैसे समाधान नहीं है।
शब्दोंका प्रयोग हरा है। जो कथनके पर्यापरसम्बंध । २ समीप-"सिद्धसेनगणिके वाक्यमें अहत्यचन परसे भले प्रकार समझा जासकता है। विशेषण प्रायः तत्वार्थाधिगमसूत्रके लिये है, मात्र समीचा-"यहाँ [सिद्धसेनगणि के उक्त वाक्यमें] उसके भाष्यके लिये नहीं ।" यहाँ प्रायः शब्दसे आपको अहत्पवचने, तत्त्वार्थाधिगमे और उमास्वातिवाचकोपच