Book Title: Anekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 796
________________ मो.जगदीशचन्द्र पौर उनकी समीक्षा संकलन किया हो, और समीक्षाके समय भी उन ग्रन्थों और प्रकलंकके कथनकी दृष्टि प्रकलंकके साथ । को देखनेकी ज़रूरत न समझी हो। इसीसे आप अपनी मेरी कथनदृष्टिसे, जो बात आपत्तिके योग्य नहीं, समीक्षामें कोई महत्वका कदम न उठा सके हों और अकलंककी कथन दृष्टि से वही आपत्ति के योग्य हो प्रापकी यह सब समीक्षा महज उत्तरके लिये ही उत्तर जाती है तब अकलंक मेरी कथनहष्टिसे अपना लिखे जानेके रूपमें लिखी गई हो। कथन क्यों करने लगे ? उसकी कल्पना करना __. समी--"इसके अतिरिक्त कुछ ही पहिले ही निरर्थक है। पकलंकके कथनकी दृष्टि उनके मुख्तार साहब कह चुके हैं कि "अईत्यवचन' विशेषण उस वार्तिक तथा वार्तिकके भाष्यमें संनिहित है मूल तत्वार्थसूत्रके लिये प्रयुक्त हुआ है" तो फिर यदि जिसका उल्लेख ऊपर 'विचारणा' को उद्धृत अकलंकदेव "उक्त हि माधवचने 'इम्यानया निगुणा करनेके अनन्तर की गई विवेचनामें किया गया है । गुणाः" कहकर यह घोषित करें कि अहंपचनमें उसके अनुसार 'अर्हत्प्रवचन' से अकलंकका अभिप्राय अर्थात् तत्वार्थसत्रमें ( स्वयं मुख्तारसाहबके ही कथना- 'अहत्प्रवचनहृदय' का जान पड़ता है-उमास्वातिके नुसार ) "इण्याश्रया निर्गुणा गुणाः" कहा है तो तत्वार्थसूत्रका नहीं | उमास्वाति के 'गुणपर्यायवदाम्य' इसमें क्या आपत्ति हो सकती है ? 'अर्हत्प्रवचन' पाठ इस सूत्रमें पाए हुए 'गुण' शब्दके प्रयोग पर तो वहाँ को अशुद्ध बताकर उसके स्थानमें 'हत्प्रवचनहृदय' यह कहकर आपत्ति की गई है कि 'गुण' संशा अन्य पाठकी कल्पना करनेका तो यह अर्थ निकलता है कि शास्त्रोंकी है,आईतों के शास्त्रों में तो द्रव्य और पर्याय इन अर्हत्प्रवचनहृदय नामका कोई सूत्रग्रन्थ रहा होगा, तथा दोनोंका उपदेश होनेसे ये ही दो तत्त्व है, इसीसे द्रव्या"वपाश्रया निर्गुणा गुणाः" यह सूत्र तत्वार्थ सूत्रका न र्थिक और पर्यायार्षिक ऐसे दो मूल नय माने गये है। होकर उस अईप्रवचनहृदयका है जो अनुपलब्ध है।" यदि 'गुण' भी कोई वस्तु होती तो उसके विषयको ने परी-यहाँ भी डबलइन्वटेंड कामाजके भीतर कर मूलनयके तीन भेद होने चाहिये थे; परन्तु तीसरा दिये हुए मेरे वाक्यको कुछ बदल कर रखा है और मूलनय (गुणार्थिक ) नहीं है । अतः गुणोपदेशके वह तबदीली उससे भी बढ़ी चढ़ी तथा अनर्य-कारिणी है अभावके कारण सूत्रकारका द्रव्य के लिये गुणपर्यायवान् जो इसी वाक्यको इससे पहलेकी समीक्षा (नं० १) में ऐसा निर्देश करना ठीक नहीं है । और फिर इस देते हुए कीगई थी । शुरुका वह 'प्रकटरूपमें' अंश आपत्तिके समाधानमें कहा गया है कि वह इसलिये इसमेंस भी निकाल दिया गया है जो मेरे कथनकी दृष्टि ठीक नहीं है क्योंकि 'अर्हत्मवचन हृदय' श्रादि शास्त्रों में को बतलाने वाला था और जिसकी उपयोगिता एवं गुणका उपदेश पाया जाता है, और इसके द्वारा यह आवश्यकतादिको परीक्षा नं १ में बतलाया जा चुका सूचित किया गया है कि 'अईत्प्रवचनहृदय' जैसे है। अस्तु, मेरा वाक्य जिस रूपसे ऊपर उद्धत 'विचा- प्राचीन ग्रन्थों में पहलेसे गुणतत्त्वका विधान है, उमारण में दिया हुआ है उसे ध्यानमें रखते हुए, इस स्वातिने वहींसे उसका ग्रहण किया है, इसलिये उनका समीक्षाका अधिकांश कथन अविचारित रम्य जान यह निर्देश अप्रामाणिक तथा आपत्तिके योग्य नहीं है। पड़ता है। वास्तवमें मेरे कथनकी दृष्टि मेरे साथ है प्रमाणमें दो शास्त्रोंके वाक्योंको उद्धृत किया है,

Loading...

Page Navigation
1 ... 794 795 796 797 798 799 800 801 802 803 804 805 806 807 808 809 810 811 812 813 814 815 816 817 818 819 820 821 822 823 824 825 826