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मो.जगदीरान और उनकी समी.
कल्पनाश्रीका कोई आधार नहीं माना जा सकता।" अपने प्रथम लेख में प्रस्तुत किया था और जिन्हें, आपकी
२ परीक्षा-समीक्षाके इस अंशमें कुछ भी सार युक्तियोंका परिचय देते हुए,ऊपर(भाग नं. में)उद्धत मालूम नहीं होता। इसमें अधिकाँश बातें ऐसी हैं जिन किया जा चुका है, वे श्वेताम्बर-सम्मत प्रस्तुत भाष्यके पर ऊपरकी परीक्षाओंमें काफ़ी प्रकाश डाला जा चुका उल्लेख नहीं है, यह बात सम्पादकीय विचारणामें स्पष्ट है अथवा उन परीक्षाओंकी रोशनीमें जिनकी आलोचना की जा चुकी है । स्पष्ट करते हुए राजवार्तिकको अन्तिम करके उन्हें सहज ही में निःसार प्रमाणित किया जा कारिकाके उल्लेख-विषयमें जो युक्तियां दी गई श्री उन सकता है । इमलिये उन पर पुनः अधिक लिस्वनेकी पर इस समीक्षामें कोई आपत्ति नहीं की गई, जिससे ऐसा जरूरत नहीं; यहाँ संक्षेपरूपमे इतना ही कह देना मालूम होता है कि प्रो० साहबने उन्हें स्वीकार कर पर्याप्त होगा कि-दिगम्बर ग्रन्थोंमें भी भागमोंके लिये लिया है-अर्थात् यह मान लिया है कि उस अन्तिम अर्हस्प्रवचन जैसे नामोंका उल्लेख है, 'ऊपर आ चुका कारिकामें प्रयुक्त हुए 'भाष्य" पदका अभिप्राय राजवाहै' इन शब्दों के द्वारा 'तस्वार्थाधिगमाख्यं नामको जिस तिक नामक तत्वार्थभाष्यके सिवा किसी दूसरे भाष्यका कारिकाकी ओर संकेत किया गया है उसमें 'तत्वार्थाधि- नहीं है । दूसरे उल्लेखको इष्टसिद्धि के लिये असंगत और गम' नामके मूलमन्थको, 'अहद्वचनैकदेश' कहा है- असमर्थ बतलाते हुए जो युक्तियां दी गई थीं उनसे भाष्यको नहीं, अहत्प्रवचनहृदयका लक्ष्य भाष्य किसी अभी तक प्रो० साहबको संतोष नहीं हुश्रा, इसलिये प्रकार भी नहीं हो सकता-वह मूलसूत्र ग्रंथ है और उनकी समीक्षाका इस लेखमें आगे चल कर विशेष उमास्वातिके तत्वार्थसूत्रसे पहलेका रचा होना चाहिए, विचार किया जायगा; साथमें 'वृत्ति' का जो नया 'अर्हत्प्रवचन'का प्रयोग यदि 'अहत्यवचनहृदय' के स्थान उल्लेख समीक्षामें उपस्थित किया गया है उस पर भी पर संक्षेपरूपमें किया गया हो तो दोनों एकार्थक भी विचार किया जायगा, और इस सब विचार-द्वारा यह हो सकते हैं, अन्यथा नहीं; 'अहत्प्रवचनहृदय' श्रादि दो स्पष्ट किया जायगा कि भाष्य और वृत्ति दोनोंके उल्लेख प्राचीनग्रयोंका स्पष्ट उल्लेख अकलंक के राजवार्तिकमें इष्टसिद्धि के लिये उन्हें प्रस्तुत भाष्यके उल्लेख बतलाने मिल रहा है, इसलिये "जब तक कहीं उल्लेग्व न मिल के लिये-पर्याप्त नहीं हैं। बाको अर्हप्रवचन और अहं. जाय तब तक प० जुगलकिशोरजीकी कल्पनाओंका त्प्रवचनहृदयके उक उल्लेखोंके विषयमें ऊपर यह स्पष्ट कोई आधार नहीं माना जा सकता" यह कथन कोरा किया ही जा चुका है कि वे प्रस्तुत भाष्य तो क्या, प्रलाप जान पड़ता है।
उमास्वातिके मूल तत्वार्थसूत्रके भी उल्लेख नहीं हैं। अब रही प्रोफेसर साहबकी ममझकी बात, श्रापकी यहाँ पर मैं इतना और भी बतला देना चाहता समझके अनुसार राजवार्तिक में जहाँ कहीं भी भाष्य,वृत्ति, हूँ कि 'प्रवचन'का अर्थ श्रागम है ("पागमो सिद्धतो अहत्यवचन और अहत्पवचनहृदय इन नामोंका उल्लेख पवयणमिदि एबहो"-धवला ) और इसलिये 'अहंहै उन सबका लक्ष्य उमास्वातिका ( उमास्वातिके नाम प्रवचन' का अर्थ हुआ अदागम-जिनागम प्रादि । पर चढ़ा हुआ ) प्रस्तुत तत्त्वार्थभाष्य है। परन्तु यह अहत्प्रवचनको कलंकदेवने जिनप्रवचन, जैनप्रवचन, समझ ठीक नहीं है। भाज्यके जिन दो उल्लेखोको मापने प्राईतप्रवचन, आईतनागम और परमागम बैसे नामों