Book Title: Anekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 806
________________ वर्ष ३, किरण १२१ प्रो० जगदीशचन्द्र और उनकी समीक्षा में न किया जानुका हो। सिद्धसेन गणि जो यह शिलावाक्य में पाया जाता है, जो वहां क कहते हैं कि काल किसी के मतसे द्रव्य है परन्तु टीका की प्रशस्ति पर से उद्धृत जान पड़ता हैउमास्वाति वाचक के मत से नहीं, वे तो पांच ही तस्येवशिष्यश्शिवकोटिसूरिस्तपोलतालम्बनदेहयष्टि। द्रव्य मानते हैं उसका उनके ऊपर के स्पष्टीकरण संसारवाराकरपोतमेतत्सत्वार्थसूत्रं तदलंचकार । में कोई विरोध नहीं आता-वे उसके द्वारा अब (शि० नं० १०५) यह नहीं कहना चाहते कि भाष्यकार उमास्वाति इस तरह मेरी उक्त विचारणा' पर जो छह द्रव्य मानते हैं अथवा छह द्रव्यों का विधान समीक्षा लिखी गई है उसमें कुछ भी सार नहीं है, करते हैं। भाष्यकार ने यहां आगमकथित दुमरी और इसलिये उससे प्रोफेसर साहब का वह मान्यता अथवा दूसरों के अध्यवसायकी दृष्टि से अभिमत सिद्ध नहीं हो सकता जिसे वे सिद्ध ही 'षड्व्य' का उल्लेखमात्र किया है। ऐसी करना चाहते हैं अर्थात यह नहीं कहा जासकता हालत में यह कहना कि "उमास्वाति (श्वे० सूत्रपाठ कि अकलंक के सामने उमास्वाति का श्वेताम्बरनथा भाष्यके तथाकथित रचयिता) छह द्रव्योंको सम्मत भाष्य अपने वर्तमान रूप में उपस्थित था मानते हैं। छह दव्योंका स्पष्ट कथन उन्होंने भाष्यमें और अकलंक ने उसका अपने वार्तिक में उपयोग किया है" कुछ भी युक्तियुक्त प्रतीत नहीं होता। तथा उल्लेख किया है बल्कि यह स्पष्ट मालूम होता फिर यह नतीजा तो उससे केसे निकाला जासकता है कि अकलंकके सामने उनके उल्लेखका विषय है कि-"अकलंकने षडद्रव्य वाले जिस भाष्य की कोई दमरा ही भाष्य मौजूद था, और वह उन्हीं ओर संकेत किया है वह उमास्वाति का प्रस्तुत का अपना 'राजवर्तिक-भाष्य' भी हो सकता है । तत्वार्थाधिगमभाष्य ही है" ? क्यों कि एकमात्र क्योंकि उसमें इससे पहले अनेकवार 'पएणामपि "षड्द्रव्यावरोधात्” पद अकलंक के “यद्भाष्ये द्रव्याणां, षडत्र द्रव्याणि' षडद्रव्योपदेशः' इत्यादि बहुकृत्वः षड्व्याणि इत्युक्तं" इस वाक्य में आप रूप से छह द्रव्यों का उल्लेख आया है, और हुए “बहुकृत्वः षड् द्रव्याणि" पदों का वाच्य नहीं स्वकीय भाष्य की बातको लेकर सूत्र पर शंका हो सकता । अकलंक के ये पद भाष्य में कमसे उठाने की प्रवृत्ति अयत्र भी देखी जाती है, जिस कम तीन वार 'षड्द्रव्याणि" जसे पदों के उल्लेख का एक उदाहरण स्वभावमार्दवं च सूत्रके भाष्यका को मांगते हैं। और न यही नतीजा निकाला निम्न वाक्य है-"ननु पूर्वत्र व्याख्यातमिदं पुनर्भजासकता है कि 'इस (प्रस्तुत) भाष्य का मृचन हणमनर्थकं सूत्रेऽनुपात्तमिति कृत्वा पुनरिदमुअकलंक ने 'वृत्ति' शब्द से किया है। वृत्ति का च्यते ।" इससे पूर्व के, " अल्पारंभपरिग्रहत्वं अभिप्राय किसी दूसरी प्राचीनवृत्ति अथवा उस मानुषस्य" सूत्र की व्याख्या में मार्दव' प्रानुका टीका से भी हो सकता है जो स्वामी समन्तभद्र था, इसी से शंका को वहां स्थान मिला है। अन्तु । के शिष्य शिवकोटि प्राचार्य-द्वारा लिखी गई थी यह तो हुई प्रो० साहब के पूर्व लेख के और जिसका स्पष्ट उल्लेख श्रवणबेल्गोल के निम्न नम्बर ४ की बात, जो तीन उपभागों (क, ख, ग)

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