Book Title: Anekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 808
________________ प्रो जगदीशचन्द्र और उनकी समीक्षा कि सर्वार्थसिद्धिकार प्राचार्य पूज्याद मामले कथन वर्तमानके दिगम्बर श्वेताम्बर सूत्रपाठोंके प्रस्तुत तत्वाथभाष्य अथवा तत्त्वार्थभाष्यका शेष साथ सम्बद नहीं है। इसमें स्पष्ट है कि पहले वतमानरूप उपस्थित नहीं था, जिसका 'स्वो तत्त्वार्थसूत्रके अनेक सूत्रपाठ प्रचलित थे और वे पज्ञ भाष्य' होनको हालत में उपस्थित होना बहुत अनेक प्राचार्य परम्पराओंसे सम्बन्ध रखते थे। कुछ स्वाभाविक था, और न वह मूत्रपाठ ही उप- छोटी बड़ी टोकाएँ भी तत्त्वार्थसूत्र पर कितनी ही स्थित था जो अकलंक के सामने मौजूद था और लिखी गई थी, जिनमें में बहुतसी ल्म हो चुकी है जिसकं उक्त सूत्रपाठको वे 'प्राविरोधी' तक और वे अनेक सूत्रों के पाठभेदोंको लिये हुए थीं। लिखते हैं, अन्यथा यह संभव मालूम नहीं होता ऐमी हालतमें लेखक नं. ३ में प्रोफेमरसाहव कि जो श्राचाय एकमात्रा तकके साधारण पाठ- ने उक्त शंकाका निरसन होना बतलाते हुए, जो भेदका तो उल्लेख करें वे ऐसे वादापन्न पाठभेद- यह नतीजा निकाला है कि "अकलंकके सामने को बिल्कुल ही छोड़ जावें। कोई दूसरा सूत्रपाठ नहीं था, बल्कि उनके सामने _ सिद्धसन गणिको टीकामें अनेक :स सूत्रों स्वयं तत्त्वाथभाष्य मोजूद था" वह समुचित का उल्लेख मिलता हे जो न तो प्रस्तुत तत्त्वाय प्रतीत नहीं होता।" भाष्यमें पाये जाते हैं और न वतमान दिगम्बरीय इस सब 'विचारणा'की समीक्षा में प्रोफेसर अथवा सर्वार्थसिद्धिमान्य सूत्रपाठोंमे ही उपलब्ध साहब सिर्फ इतना ही लिखते हैं:होते हैं । उदाहरणकं लियं "कृमिपिपीलिकाभ्रमरमनु- ११ समीक्षा-"इसी तरह सूत्रोंके पाठभेद ज्यादीनामेकैकवृद्धानि" सूत्रको लीजिये, सिद्धमन की बात है ।" 'बन्धे समाधिकौ पारिणमिको, लिखते हैं कि इस सूत्रमें प्रयुक्त हुए 'मनुष्यादीनाम्' 'द्रव्याणि जीवाश्च' आदि सूत्र भाष्यमें ज्यों की पदको दुमरे ( अपरे) लोग 'अना' बतलाते हैं त्यों मिलती हैं । उक्त विवेचनकी रोशनीमें कहा और साथ ही यह भी लिखते हैं कि कुछ अन्य जा सकता है कि अकलंकका लक्ष्य इसी भाष्यके जन जो 'मनुष्यादीनाम्' पदको तो स्वीकार करते सूत्रपाठकी ओर था। हैं वे इम सूत्र के अनन्तर "अतान्द्रियाः केवजिनः" 'अल्पारम्भपरिग्रहत्वं' श्रादि सूत्रके विषयमें यह एक नया ही सूत्रपाठ रखते हैं । यह सब सम्भवतः कुछ मुद्रण सम्बन्धी अशुद्धि हो । शायद * "अपरेऽतिविसंस्थुलमिदमालोक्य भाष्यं विष- वही पाठ मूल प्रतिमें हो और मुद्रितमें छूट गया बणाः सन्तःसूत्रे मनुष्यादिग्रहणमनार्षमिति संगिरन्ते"। हो । इसके अतिरिक्त यहाँ मुख्य प्रश्न तो एक इदमन्तरालमुपजीव्यापरे वातकिनः स्वयमुपरभ्य सूत्र- योगीकरणका है जोभाष्यमें बराबर मिल जाता है।" मधीयते-'अतीन्द्रियाः केवजिनः' येषां मनुष्यादीनां यह शंका वही है जिसे प्रो० साहबने खुद ही माणमस्ति सूत्रेऽनन्तरे त एवमाहुः-मनुष्यग्रहणात् सत्रपाठभेदोंके अपने नतीजे पर उठाया था और जिसे केवखिनोऽपि पंचेन्द्रियप्रसक्तः अतस्तवपवादार्थमतीत्ये- प्रो० साहबके पूर्व लेखका परिचय देते हुए नं. २ में न्द्रियाणि केवलिनो वर्तन्त इत्यास्मेयम् ।" दिखलाया जा चुका है।

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