Book Title: Anekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 790
________________ व, किरणार] प्रो जगदीशचन्द्र और उनकी समीक्षा रणा' में अपनी ओरसे कोई खास दावा उपस्थित नहीं चौथे भागमें सबसे पहले "उक्तं हि मईपचने" इत्यादि किया गया--अपनी तरफसे किसी नये दावेको पेश वाक्यको उद्धृत करके जो यह बतलाया था कि "यहाँ करके साबित करना उसका लक्ष्य ही नहीं रहा है । 'अर्हत्प्रवचन' से 'तत्त्वार्थभाष्य का ही अभिप्राय मालम ऐसी हालतमें विचारणाकी समीक्षा लिखते हुए प्रो० होता है," और इसकी पुष्टिमें सिद्ध सेनगणिके एक माहबको उचित तो यह था कि वे उनमें उन दोषोंका वाक्यको उद्धृत किया था उम सब पर विचार करते भले प्रकार परिमार्जन करते जो उनकी युक्तियों पर हुए मैंने जो अपनी 'विचारणा' प्रस्तुत की थी वह सब लगाये गये हैं--अर्थात् यह सिद्ध करके बतलात कि इस प्रकार है-- वे दोष नहीं दोषाभाष हैं, और इमलिये उनकी युक्तियाँ "'उक्त हि बर्हस्प्रवचने दम्याश्रया निर्गुणा गुणा अपने साध्यको मिद्धि करने के लिये निर्बल और अममर्थ इति' यह मुद्रित राजवार्तिकका पाठ जरूर है; परन्तु नहीं किन्तु मबल और समर्थ हैं । परन्तु ऐमा न करके, इसमे उल्लिखित 'अहत्यवचन' से तत्त्वार्यमाष्यका ही श्रप्रो० साहबने 'विचारणा' की कुछ बातोंको ही अन्यथा भिप्राय है ऐमा लेखक महोदयने जो घोषित किया है वह रूपमे पाठकोंके सामने रखनेका प्रयत्न किया है और कहाँसे और कैसे फलित होता है यह कुछ समझमें नहीं उसके द्वारा अपनी समीक्षाका कुछ रग जमाना चाहा अाता । इस वाक्यम गुणोंके लक्षणको लिये हुए जिस है, जिमका एक नमूना इस प्रकार है सूत्रका उल्लेख है वह तत्वााधिगमसूत्रके पाँचवें अध्याय "श्रागे चलकर तो मुख्तार माहबने एक विचित्र का ४० वाँ मूत्र है, और इसलिये प्रकटरूपमें 'अर्हत्यकल्पना कर डाली है । अापका तर्क है, क्योंकि राज. वचन'का अभिप्राय यहाँ उमास्वातिके मूल तत्वार्थाधि. वार्तिक बहुत जगह अशुद्ध छपा है, अतएव राज- गममत्रका ही जान पड़ता है-तत्त्वार्थभाष्यका नहीं । वातिक में "उक्तं हि महत्प्रवचने" श्रादि पाट भी अशुद्ध मिद्धसेनगणिका जो वाक्य प्रमाणमें उद्धृत किया गया हैं; तथा 'अर्हत्यवचन' के स्थान पर 'अहत्यचनहृदय' है उसमें भी 'हत्पश्चन' यह विशेषण प्राय: तत्त्वार्थाहोना चाहिये।" धिगमसत्रके लिये प्रयुक्त हुश्रा है--मात्र उसके भाष्यके इस वाक्यमें यह प्रकट किया गया है कि लिये नहीं । इसके मिवाय, राजवातिक उक्त वाक्यसे मैंने यह दावा किया है कि "क्तहि 'अहस्प्रवचने पहले यह वाक्य दिया हुआ है-"अहस्प्रवचनहृदयादिषु द्रव्याश्रया निगुणाः गुणाः' यह पाठ अशुद्ध है गुणोपदेशात् ।" और तत्सम्बन्धी वार्तिक भी इस तथा 'अर्हत्पचन' के स्थान पर 'अहत्यचन हृदय' रूपमें दिया है-"गृणाभावादयु किरिति चेन्नाईस्प्रव होना चाहिये, और अपने इस दावेको मिछु चनहृदयादिषु गुणोपदेशात् ।" इससे उल्लेखित ग्रन्थका करने के लिये सिर्फ यह य क्ति दी है कि "क्योकि राज- नाम 'महत्प्रवचनहृदय' जान पड़ता है, जो उमास्वातिवार्तिक बहुत जगह अशुद्ध छपा है।" परन्तु मैंने कर्तृकसे भिन्न कोई दूसरा ही महत्वका ग्रन्थ होगा | अपनी 'विचारणा', जिसे पाठक देख सकते हैं, कहीं बहुत सभव है कि 'पहप्रवचनहृदये' के स्थान पर भी उक्त रूपका दावा नहीं किया और न उक्त तर्क ही 'महत्प्रवचने' छप गया हो । इस मुद्रित प्रतिके अशुद्ध उपस्थित किया है। प्रो० साहबने अपनी युक्तियोंके होनेको प्रोफेसर साहबने स्वयं अपने लेखके शुरूमें स्वी.

Loading...

Page Navigation
1 ... 788 789 790 791 792 793 794 795 796 797 798 799 800 801 802 803 804 805 806 807 808 809 810 811 812 813 814 815 816 817 818 819 820 821 822 823 824 825 826