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३, किरण
गोम्मटसार-कर्म कारकी एक टि-पति इसलिये उसे किसी तरह भी प्रक्षिप्त नहीं कहा जा पंचप वरणस्येव पौवारिदारुणकिंगपणमिति । सकता, जिसे अक्षिप्त ठहराकर सेठीजीने अपने गंधं दुविहं णेयं सुगंधदुम्गंधमिदि जाण ॥min स्त्रीमुक्ति विषयकी पुष्टि करनी चाही थी । ३१ वीं तित्तं'कानुक्कसाय माविबमारमिदि पंचरसणामं ।
और ३२ वी गाथाओंके मध्य में इस सब कथन मउगं कास गुबहु सीदुर्ण णिहासमिदि ॥१५॥ वाली गाथाओंके जुड़नेसे संहनन विषयक वर्णन कासं पर वियध्यं चत्तास्थिाणुपुग्वि गुरुना । । का वह सब अधूरापन और लंडापन दूर हो पिरमाणु तिरिमाणु पराशुदेवासपुम्युत्ति ॥ जाता है जिसका ऊपर नं०५ में उल्लेख किया एका चोइस पिंडप्पणीमो परिणदा समाव। गया है। उक्त चारों गाथाएँ इस प्रकार हैं:- यतो (१) पिंडप्पमडीमो पडवीसं परणयिस्सामि॥१॥ धम्मा वसा मेघा अजणारिया तहेव मणबजा। भगुल्लाहुगं. उबघाद परमादं च बाय उस्सास । कही मधवी पुरवी सत्तमिया माधवी णामा ॥६॥ . भावाव उजोवं छप्पयडी अगुरुवाघुकमिति ॥३॥ मिच्छाऽपुण्यदुगा(खवा ? विसु सगचपणठाणगेसु कर्मकाण्डको ३३वीं गाथाके बाद कर्मप्रकृति में शिपमेण । -
छह गाथाएँ और हैं, जिनमेंसे प्रथम दो माथाओं परमादियाथि पत्तिगि भोधेग विमेसदो गेषा ॥६॥ में नामकर्म को भवशिष्ट २२ अपिंड प्रकृतियों के विपनचके छठं, पढमं तु असंखपाउजीवेसु । नाम गिनाए हैं । दूमरी दो गाथाओंमें नामकर्मकी चरस्थे पचमछ? कमसोच्छत्तिगक संहडणा | उन्हीं अपिण्ड प्रकृतियोंका शुभ-अशुभ रूपसे सम्बविदेहेसु सहा विजाहरम्सक्खुमणुयतिरिएसु । विभाजन किया है--जिनमेंमें त्रस १२ौर स्थावर छस्सहरणा भगिया णागिदपरदो य सिरिएसु || प्रकृतियाँ १० हैं । और शेष दो गाथाओंमें नाम ___ कर्मकाण्डकी ३२ वीं गाथाके बाद कर्म प्रकृति कर्मको ९३ प्रकृतियोकं कथनकी ममाप्ति को सूचित में.५ गाथाएँ और हैं जिनमें नामकर्मको १४ पिण्ड करते हुए क्रमप्राप्त गोत्र और अन्तराम कर्मकी प्रकृतियोमेसे अवशिष्ठ वर्ण, रस, स्पर्श और प्रकृतियों को बतलाकर कमों की सब उत्तर प्रकृतियाँ
आनुपूर्वी नामकी प्रकृतियोंका कथन करके पिण्ड- इस प्रकारसे १४८ होती हैं ऐसा निर्देश किया है। प्रकृतियोंके कथनको समाप्त किया गया है, और वे गाथाएं इस प्रकार है :साथ ही २८ अपिण्डप्रकृतियों के कथनकी प्रतिज्ञा तसथावरं च बादर सुहुमं पञ्जत तह अपन। करक उनमम आदिकी अगुरुलघु भादि ६ प्रक- परतेय सरीरं पुण साहारणसरीरं थिर भपिरं ॥३॥ तियोंका उल्लेख किया है। जिनमें भाताप और सुह-मसुह सुहग-दुब्भग-सुस्सर-दुस्सर तदेव बायया । उद्योत नामकी वे प्रकृतियां भी शामिल हैं जिनके पाविजमणाविज्ज जसमाजसवित्तिणिमिणतित्ययरं । उदयका नियम कर्मकाण्डकी ३३ वीं गाथामें बत- ससवादरपज्जत पत्तैयसरीरविरं सुहं सुहुगं । लाया गया है । और जिनके बिना ३३ वीं गाथाका सुस्तरमादिज्ज पुष जसकितिथिमिणतिस्थयरं कथन असंगत जान पड़ता है । वे गाथाएँ इस थावरसुहुमभपज साहारणसरीरं भथिर मणियं ।' प्रकार हैं:
असुई दुम्भगदुस्सरणादिजधासकित्तित्ति..॥