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पंडितमवर भाशावर
बोचमें इसमें सुन्दर पद्य भी प्रयुक्त हुए हैं। अभी पहले शोलापुरसे अपराजितसूरि और अमितगति सक यह कहीं प्राप्त नहीं हुआ है।
की टीकाओंके साथ प्रकाशित हो चकी है। जिस २ भरतेश्वराभ्युदय-यह सिद्धपङ्क है । अर्थात् प्रति परसे वह प्रकाशित हुई है उसके अन्त के कुछ इसके प्रत्येक सर्गके अन्तिम वृत्तमें 'सिद्धि' शब्द पृष्ठ खो गये हैं जिनमें पूरी प्रशस्ति रही होगी। भाया है । यह स्वोपज्ञ टीका सहित है। इसमें टोपदेश टीका-प्राचार्य पूज्यपादके सुप्रसिद्ध प्रथम वीर्थकरके पुत्र भरतके अभ्युदयका वर्णन ग्रन्थकी यह टीका माणिकचन्द जैन-प्रन्थमालाके होगा। सम्भवतः महाकाव्य है। यह भी अप्रा- तत्त्वानुशासनादि-संग्रहमें प्रकाशित हो चुकी है।
कभपाबचतुर्विशतिका-टीका-भूपालकविकं प्रज्ञानदीपिका-यह धर्मामृत (सागार-अन- सिद्ध स्तोत्रकी यह टीका अभी तक नहीं मिली। गार)की स्वोपज्ञ पंजिका टीका है। कोल्हापुरके जैन पाराधनासार टीका-यह प्राचार्य देवसेनके मठमें इसकी एक कनड़ी प्रति थी, जिसका उपयोग आराधनासार नामक प्राकृत पन्थकी टीका है। स्व. पं० कल्लापा भरमापा निटवेन सागारधर्मा- अमरकोष टीका-सुप्रसिद्ध कोषको टीका । मृतकी मराठी टीकामें किया था और उसमें अप्राप्य । टिप्पणीके तौर पर उसका अधिकांश छपाया था। क्रियाकलाप-बम्बईके ऐ० पन्नालाल उसी के माधारस माणिकचन्द-प्रन्थमाला द्वारा सरस्वती-भवनमें इस ग्रंथकी एक नई लिखी हुई प्रकाशित सागारधर्मामृत सटीकमें उसकी अधि- अशुद्ध प्रति है, जिसमे ५२ पत्र हैं,और जो १९७६ काँश टिप्पणियाँ दे दी गई थीं। उसके बाद निट• श्लोक प्रमाण है । यह ग्रन्थ प्रभाचन्द्राचार्यके क्रियावेजीसे मालूम हुआ था कि उक्त कनडी प्रति जल- कलापके ढंगका है। ग्रंथमें अन्त-प्रशस्ति नहीं है। कर नष्ट हो गई ! अन्यत्र किसी भण्डारमें अभी प्रारम्भके दो पद्य ये हैंतक इस पंजिकाका पता नहीं लगा। जिनेन्द्रमुन्मूलितकर्मबन्धं प्रणम्य सन्मार्गकृतस्वरूप ।
राबीमती विमलंभ-यह एक खण्डकाव्य है अनन्तबोधाविमवं गुणोघं क्रियाकलापं प्रकटं प्रवचये ॥१॥ और स्वोपाटीकासहित है। इसमें राजमतीके योगिध्यानैकगम्यः परमविशदग्विश्वरूपः सतच । नेमिनाथ-वियोगका कथानक है । यह भी अप्राप्य स्वान्तस्थे मैव साध्यं तदमनमतयस्तत्पदण्यानबीनं,
चित्तस्थैर्य विधातुं तदनवगुणमामगादामरागं, ५ मध्यात्म-रहस्य-योगाभाष्यका प्रारम्भ करने तत्पूनाकर्म कर्मच्छितुरमति यथा मूत्रमासूत्रयन्तु ॥२॥ वालोंके लिये यह बहुत ही सुगमयोगशास्त्रका १२ काव्यालंकार-टीका-अलंकारशास्त्रके सुप्रग्रंथ है । इसे उन्होंने अपने पिताके प्रादेशसे लिखा सिद्ध प्राचार्य रुद्रटके काव्यालंकार पर यह टीका था। यह भी अमाप्य है।
लिखी गई है। अप्राप्य । मूलाराधना-टीका-यह शिवार्य की प्राकृत साबनामस्वतम-सटीक-पण्डित भाशाघर भगवती आराधनाकी टीका है जो कुछ समय का सहस्रनाम स्तोत्र सर्वत्र सुलभ है । छप भी