Book Title: Anekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 738
________________ वर्ष ३, किरण १२] ग्रन्थकार तो एक ही व्यक्ति मानकर हर एक प्रसंगको पंचम श्रुतकंवली के नाम पर ही बतलाते हैं परन्तु ऐतिहासिक दृष्टि देखते हुए और अनेक इतर साधनों द्वारा सूक्ष्मावलोकन करते हुए आधुनिक विद्वानोंको भद्रबाहु नामके दो भिन्न व्यक्ति मालूम होते हैं । श्रीभद्रबाहु स्वामी ता है कि – 'भद्रबाहुस्वामिनश्चर्तुदशपर्वरत्वाद्दशपर्वधरादीनां न्यूनत्वात् कि तेषां नमस्कारमसौ करोति ? परन्तु उस समय ऐतिहासिक साधनों की दुर्लभता होनेके कारण पारंपरिक प्रघोष के अनुसार नियुक्ति कारको चतुर्दश पूर्व धरत्वको कल्पना कर यथामति शंकाका समाधान करता है । वह अप्रस्तुत होने से यहाँ नहीं लिखा जाता । दशवैकालिकस्य च निर्युक्तिश्चतुर्दशपर्व विदा भद्रबाहुस्वामिना कृता । मलयगिरी, पिण्डनिय वृित्ति श्रस्य चाती गम्भीरार्थतां सकलसाधुवर्गस्य नित्योपयोगितच विज्ञाय चतुर्दशपूर्वधरेण श्रीभद्रबाहु स्वामिना तद्व्याख्यानरूपा 'श्रभिनिबोहियनाणं सुअनाणं चैव श्रहिनाण च, इत्यादि प्रसिद्धयथरूपा निर्युक्तिः । - मलधारी हेमचन्द्रमुरि-विशेषावश्यकवृ० देखो इतिहासप्रेमी मुनि कल्याणविजय जी द्वारा लिखी हुई 'वीर-निर्वाण-संवत् श्रौर जैन कालगणना ' नामकी हिन्दी पुस्तक, तथा न्या० व्या० तीर्थं पं० बेचरदास जीवराज द्वारा संशोधित पूर्णचन्द्राचार्य विरचित उपसभ्गहरं स्तोत्र लघुवृत्ति - जिनसूरमुनिरचित प्रियकरनृपकथा समेत — में की प्रस्तावना ( शारदा विजयग्रन्थमाला, भावनगर द्वारा प्रकाशित) । ६७३ here भद्रबाहु श्री यशोभद्रसूरिके शिष्य थे, चतुर्दशपूर्वधर (पंचमश्रुतके वली ) थे, मौर्यवंशीय चन्द्रगुप्त के समय में हुए थे, और उन्होंने वीर निर्वाण दिवस मे १७० वें वर्ष में देवलोक प्राप्त किया था । इनके जीवन विषयमें मेरी धारणाके अनुसार प्राचीनमे प्राचीन उल्लेख परिशिष्टपर्व में दृष्टिगोचर होता है। उसमें श्री स्थूलभद्रको पूर्वकी वाचना देनकी हक़ीक़त है परन्तु नियुक्ति वगैरह प्रन्थों तथा वराहमिहरके सम्बन्ध में नाम निशान भी नहीं हैं। यदि निर्य क्तियाँ वगैरह उनकी कृति होतीं तो समर्थ विद्वान् श्रीहेमचन्द्राचार्य उनका उल्लेख किये बिना नहीं रहते | दूसरे भद्रबाहु विक्रमकी छठी शताब्दी में हो गये हैं, वे जाति ब्राह्मण थे, प्रसिद्ध ज्योतिषी वराहमिहर इनका भाई था; परन्तु यह नहीं कहा जा सकता कि वे किसके शिष्य थे । नियुक्तियाँ यादि सवकृतियाँ इनके बुद्धिवैभव में उत्पन्न हुई हैं । प्राचीन मान्यता के अनुसार नियुक्तिकारको चतुर्दशपूवधर कहा जाता है, परन्तु आवश्यक + चन्द्रगुप्त का राज्यारोहणकाल वीर निर्वाणसे १५५ वें वर्ष मे है । देख े, परिशिष्टपर्व सर्ग ८ वै का निम्नलिखित श्लोक -- एवं च श्रीमहावीरमुक्तेर्वर्षशते गते । पंचपंचाशदधिके चन्द्रगुप्तोऽभवनृपः ॥ t वीरमोक्षाद्वर्षशते सप्त्यप्रे गते सति । भद्रबाहुरपि स्वामी ययौ स्वर्ग समाधिना ॥ परि० स०९, श्लोक ११२

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