Book Title: Anekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 751
________________ भनेकान्स [पाश्विन, वीर निर्वाण सं०२४१६ ___ अर्थात-यह बात सब प्रकारसे सिद्ध है कि अर्थात-उम मावद्ययोग ( अन्तर्बाह्य हिंसक प्राणियों पर दया करना 'बाह्यव्रत है' और कपायों उपयोग ) के अभाव होनका नाम ही निवृत्ति का (रागादिकोंका) त्याग करना अंतर्बत है । तथा कहलाती है, उमीका नाम व्रत है । यदि मावद्ययोग यही अन्तर्वत निजात्मापर दयाभाव कहलाता है। की निवृत्ति अंश (अणु ) रूपमे है तो व्रत भी इमी 'अन्तवत' को 'इद्रिय निरोधसंयम' अंश (अणु ) रूपम है, और यदि मावद्ययोगकी और 'बाह्यवत' का 'प्रागिरक्षणमयम' भी कहते निवृत्ति वंश ( महान् ) रूपम है ना बन भी हैं। यथा माश ' महान ! रूपम है। सत्यमक्षार्थसम्बन्धाज्जानं नाऽसयमाय तत् । भावाथ -वक पालकजन दो प्रकारकं हैं, तत्र रागादिबुद्धिर्या सयमस्तनिरोधनम् ।। अणुत्रा पालक गृहस्थ है जिनकी 'उपासक' त्रसस्थावरजीवानां न वधायोद्यत मनः । सज्ञा है, और महान् व्रतकं पालक वनस्थ हैं जिनकी न वचो न वपुः कापि प्राणिसंरक्षणं स्मृतम् ।। 'माधक-माधु'संज्ञा है । -पंचा० २, ११२२-२३ तीन गुप्ति, पाँच ममिति. दस धर्म, बारह अर्थान-इन्द्रिय और पदार्थक सम्बन्धसे जो अनुप्रेक्षा, बाईस परिषहजय, पाँच चारित्र, और ज्ञान होता है वह असंयम नहीं करता है। किन्तु बारह प्रकारक तप, ये अंतवत प्रधान या निवृत्ति इन्द्रिय और पदार्थक सम्बन्ध होने पर उम पदार्थ प्रधान महा- 4 अंग हैं। जो राग द्वेष परिणाम होते हैं वे ही असंयमको औषधि. बाहर, ज्ञा माधन और अभय, इन करने वाले हैं। उन राग-द्वेष रूप परिणामोंको - :-- गृहस्थ के व्रतको 'अणुवत' कहनेमे यह नहीं रोकना ही 'इन्द्रिय-निराध-संयम' है । तथा त्रम समझना चाहिये कि-अणुवनी गृहस्थको हिंसा स्वरूप और स्थावर जीवोंको मारनेके लिये मन वचन पांच पाप अणुप्रमाण अंशम करनेकी तो मनाई है और कायकी कभी प्रवृत्ति नहीं करना ही 'प्राणि संरक्षण' शेष अंशमें करनेकी छुट्टी है । ऐसा समझ लेने या प्रगट संयम है। होनेसे तो हम दो तरहसे अपना भहित कर बैठेंगे । ___ एक खुलासा और है कि अहिंसाधर्म-व्रत एक तो हम पंच पाप करने में अधिकांशमें प्रवृत्त हो के पालक दो तरहके होते हैं । यथा - तस्यामावोनिवृत्तिः स्याद् व्रतं चार्थादिति स्मृतिः । नहीं करेगा, जिससे कि हमारा न मालूम कितने प्रसंगों आयेंगे, दूसरे राजन्यायालय हमारी जबानका एतबार अंशासाप्पंशतस्तसा सर्वतः सर्वतोरि तत् ॥ पर प्रहित हो जाना संभव है। अतएव हमें पंच पार्पोसे --पंचा०२-०५५२ कमसे कम राज-कानुनकी मंशाके अनुसार तो बराबर दर्शन, ज्ञान और चारित्र 'बन्धके कारण नहीं, (सर्वांशमें ) बचना ही चाहिये । ऐसा करनेमे हम किंतु बंधका कारण राग है। राज-कानून भंगका फल (दर) भी नहीं पायेंगे और (देखो, पु० सि. रखोक २१२ से २१५) हमारी राजन्यायालय में वचन-साख मी कायम रहेगी।

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