Book Title: Anekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 731
________________ अनेकान्त [भाद्रपद, बीर निर्वाब सं०२४॥ श्रीमदनकीर्तिकी बनाई हुई 'शासनचतुर्विंश- हो गये हैं। उनमें विद्यापति बिल्हण बहुत प्रसिद्ध तिका' नामक ५ पत्रोंकी एक पोथी हमारे पास है। हैं, जिनका बनाया हुमा विक्रमांकदेव-चरित है। जिसमें मंगलाचरणके एक अनुष्टुपु लोकके अति- यह कवि काश्मीरनरेश कलशके राज्यकालमें वि० रिक ३४ शार्दूलविक्रीड़ित वृत्त हैं और प्रत्येकके सं० १११९ के लगभग काश्मीरसे चला था और अन्तमें 'दिग्वासमा शासन' पद है । यह एक जिस समय वह धारामें पहुँचा उम समय भोजदेव प्रकारका तीर्थक्षेत्रों का स्तवन है जिसमें पोदनपुर की मृत्यु हो चुकी थी। इसमें वे आशाधरके प्रशंसक बाहुबलि, श्रीपुर-पार्श्वनाथ, शंख-जिनेश्वर, दक्षिण नहीं हो सकते । भोज की पांचवीं पीढ़ीके राजा गोमट्ट नागद्रह-जिन, मेदपाट ( मेवाड़) के नाग- विन्ध्यवर्मा के मंत्री विल्हण उनसे बहुत पीछे हुए फणी ग्रामके जिन, मालवाके मङ्गलपुरके अभि- हैं। चौर-पंचासिका या बिल्हण-चरितका कर्ता नन्दन जिन मादिकी स्तुति है । मङ्गलपुरवाला बिल्हण भी इनमें भिन्न था । क्योंकि उसमें जिस पद्य यह है वैरिसिंह राजाकी कन्याशशिकलाके साथ बिल्हणश्रीमन्मालवदेशमंगलपुरे म्लेच्छप्रतापागते का प्रेम सम्बन्ध वर्णित है वह वि० सं० ९०० के भग्वा मूर्तिरयोमियोजितशिराः सम्पूर्ण सामायौ। लगभग हुआ है । शार्ङ्गधर पद्धति, सूक्तमुक्तावली बस्योपद्रवनाशिनः कलियुगेऽनेकप्रभावैर्युतः, आदि सुभाषित-संग्रहोंमें बिल्हण कविके नामसे स श्रीमानमिनन्दनः स्थिरयतं दिग्याससा शासनं ३n बहुतसे ऐसे श्लोक मिलते हैं जो न विद्यापति बिल्हणके विक्रमाकदेवचरित और कर्णसुन्दरी - इस में जोग्लेच्छोक प्रतापका श्रागमन बतलाया नाटिकामें हैं और न चौर-पंचासिकामें। क्या है, उससे ये पं० श्राशाधरजीके ही समकालीन आश्चर्य है जो वे इन्हींमंत्रिवर बिल्हण कविके हों। मालूम होते हैं । रचना इनकी प्रौढ़ है। पं० श्राशाधरजीकी प्रशंसा इन्हींनकी होगी। अभी तक इनका ____ मांडूमें मिले हुए विन्ध्यवर्मा के लेखमें इन और कोई प्रन्थ नहीं मिला है। बिल्हणका इन शब्दोंमें उल्लेख किया है "विन्ध्यवर्म. विल्हण कवीश-बिल्हण नामके अनेक कवि नृपतेः प्रसादः। सान्धिविग्रहकबिम्हणःकवि।" अर्थात बिल्हण कवि विन्ध्यवर्माका कृपापात्र और परराष्ट्र इस प्रतिमें लिखनेका समय नहीं दिया है सचिव था। परन्तु दो तीनसौ वर्षसे कम पुरानी नहीं मालूम होती। ५-६० देवचन्द्र-इन्हें पण्डित आशाधरजीने जगह जगह भार उड़ गये हैं जिसमें बहुतसे पच पूरे व्याकरण-शास्त्र में पारंगत किया था। नहीं पड़े जाते। -वादीन्द्र विशालकीर्ति- ये पूर्वोक्त मदनकीति xश्रीजिनप्रभसूरिके 'विविध-तीर्थकरुप' में भवन्ति के गुरू थे। ये बड़े भारी वादी थे और इन्हें देशस्थ अभिनन्दनदेवकल्प'नामका एक कप है जिसमें पण्डितजीने न्यायशास्त्र पढ़ाया था । सम्भव है, ये अभिनन्दनजिनकी भग्न मूर्तिके जुड़ जाने और अतिशय धारा या उज्जैनकी गहीके भट्टारक हों। प्रकट होनेकी क्या दी है। (मागामी किरणमें समाप्त)

Loading...

Page Navigation
1 ... 729 730 731 732 733 734 735 736 737 738 739 740 741 742 743 744 745 746 747 748 749 750 751 752 753 754 755 756 757 758 759 760 761 762 763 764 765 766 767 768 769 770 771 772 773 774 775 776 777 778 779 780 781 782 783 784 785 786 787 788 789 790 791 792 793 794 795 796 797 798 799 800 801 802 803 804 805 806 807 808 809 810 811 812 813 814 815 816 817 818 819 820 821 822 823 824 825 826