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[भाइपद, वीर निवाब सं०२५॥
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इस काव्यके प्रथम भागमें ही विष्णुस्तुति अपनी कवितामें जगह जगह पर क्यों नहीं बखेर स्पष्ट रहते हुए भी उस तरफ ध्यान नहीं देते हुए, दिया है। श्रीमान् पाठक महाशयका इसके 1९० और III नृपतुंग राजा होनेम कवि नहीं था यह बात १८ इन दो पद्योंके माधारसे यह कहना कि नहीं; क्योंकि भारतवर्षमें शासन करने वाले बहुत"Two verses which praise Jina,reflect से नरेश स्वयं कवि थे; यदि वैसा न हो तो the religious opinions of the author" 'राजशेखर'की (ई०स०करीब ८८०-९२८के बीचमें) (क० मा० उ०पू०.) ठीक नहीं है; क्योंकि 'काव्यमीमांसा' के .-"राजा कविः कविसमानं इन दोनों में IE० को इस कविकी स्वतन्त्र रचना विवधीत । राजनि कवी सर्यो लोकः कविः स्यात् ॥" कहने के बदले 'व्यवहित दोष' निदर्शन करनेके लिये इस वाक्यका वक्तव्य स्वप्नकी बातें नहीं होगा
और किसी काव्यसे लिया हुआ दृष्टान्त मालूम क्या ? इस बात को और स्पष्ट करने के लिये कुछ पड़ता है, III १८वा पद्य इनसे ही रचा गया कन्द उदाहरण दिये जाते हैं -(१) सोड्डल देवकी पद्य हुआ होगा । सकल धर्मोको समान दृष्टिसे (ई० स० ११ वां शतक) 'उदयसुन्दरी कथा' में । सरकार करने वाले इस कन्द पद्यकी रचना करनसे "कवीन्द्ररष विक्रमादित्य-श्रीहर्ष-मुंज-भोजदेवादि ही वह जैन था यह कहना असंगतहे इसके सिवाय भूपाल:" लिखा है, (२) श्रीहर्षवर्धनने (ई० स० कोई भी कवि अपने इष्टदेवताकी स्तुति ग्रन्थारम्भमें ६०६-६४७) संस्कृतमें 'प्रियदर्शिका', 'रत्नावली' ही करता है, बीचमें या अन्य जगह जगह पर नहीं करता है। बहुशः I ७८ वा पद्य जैन धर्म-सम्बन्धी जैनियों में भी किसी प्रकारका धर्मभेद नहीं था पद्य होना चाहिये । इससं क्या ? कविक विचारमें इस बातकी मामतुगाचार्य-कृतपवित्र 'भक्तामरस्तोत्र' धर्मभेद है क्या ? जिस धर्ममें अच्छी बात हो उस नामक जिनस्तुति ही साक्षी है:प्रहण करना कविका धर्म नहीं है क्या ? अच्छी "स्वामव्ययं विभुमचिस्यमसंख्यमाचं। बात अपने धर्ममें हो तो अच्छी, अन्य धर्ममें हो ब्रह्माणमीश्यरमनतमनंगकेतुम् ॥ तो अच्छी नहीं, यह भेद कवियोंमें है क्या ? इमके योगीश्वरं विदितयोगमनेकमेक। सिवाय कविराज मार्गके I १०३-१०४ नं० के
शामस्वरूपममलं प्रवदन्ति सन्तः ॥ २४ ॥ पद्योंमें इसने 'समयविरुद्ध' दोष मम्बन्धी प्रस्ताव
बुद्धस्त्वमेव विभुधाचितबुद्धियोधात् । में कपिल (सांख्य ), सुगत (बौद्ध), कणचर (= करणाद, वैशेषिक ) लोकायत्तिक ( नास्तिक )
स्वं शंकरोसि भुवनत्रयशंकरस्वात् ॥ इस्यादि मत-सम्बन्धी उद्गार उन उन मागभेदके पातासि धीर शिवमार्गविविधानाद। अनुगुण होने चाहियें। उन उन समयसूत्रों के व्यक्तं स्वमेव भगवन् पुरुषोत्तमोसि" ॥ २१ ॥ विरुद्ध नहीं होने चाहियें, यह बान इमने नहीं कही - Gaekrad's Oriental Series, No. I P. 5+. क्या ? ऐसे व्यक्तिने जिनस्तुति-सम्बन्धी पयोंको Ibid. No. XI P. 150.