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अनेकान्त
[भाद्रपद, वीर निव सं. २०१५
(१) उपर्युक 'काव्यमाला' में कही हुई 'ख' होगा ऐसा मालूम पड़ता है। हस्त प्रतिमें 'विवेकायकराज्येन' इस एक ही पद्य के (३) इम कविताके २रे और २८ वें पद्योंमें सिवाय अन्य २८ पच और 'क' हस्त प्रतिके सभी दिखाई देने वाला 'विमल' शब्द केवल निर्मल २९ पद्य संस्कृत 'आर्या' छन्दमें हैं, परन्तु 'ख' प्रति इतना अर्थसे युक्त गुणवाचक नहीं, किन्तु कविने का यह एक अन्तिम पद्य हो 'अनुष्टुभ्' नामका अपने नामके श्लेषसे उमका उपयोग किया श्लोक है-यह क्यों ? नृपतुंगने अन्य २८ पद्योंको होगा, यह बात शीघ्र मालूम पड़ जाती है। अनः
आर्या छन्दमें रचकर, भाप विवेकसे राज्यभार कविका नाम 'विमल' ही होना चाहिये। त्यागकर पश्चात इस कविताको रचना करते हुए (४) नपतुंग शक सं०७९७ ( ई० सन् ८७५) यहीं एक पध'अनुष्टम्' श्लोकमें क्यों रचा ? इतनी में अपने पुत्र अकालबर्षको अपनी गद्दी पर बैठा छोटीसी कवितामें दो तरहकं छन्दोंकी क्या जरूरत कर आप राज्यभारमे निवृत हुआ, इस प्रकार थी पर 'क' प्रतिके अंतिम पृष्ठोंमें इसका कर्ना भीमान पाठक महाशयका कहना है, पर ऐसे 'बिमल' नामक श्वेताम्बर गुरु कहा है, इसी बातको निष्कृष्ट वक्तव्य के सम्बन्धमें आपने कोई आधार कहनेवाला पद्य उस कृतिके अन्य सब पद्योंकी तरह नहीं दिया । यह वक्तव्य ठीक नहीं मालूम पड़ता; प्रार्या छन्दमें रह कर, कृतिके रचनासमन्वयके क्योंकि ई० स० ८७५-७६ के कुछ शासनोंमे नृपसाथ सुसंगत है, अत एव मूल कृतिका अंतिम पद्य तुगके पुत्र अकालवर्ष नामक कृष्ण का नाम होते इस 'क' प्रतिकी अंतिम 'आर्या' ही होनी चाहिये हुए भी वह नरेश था यह बात नहीं, युवराज होते
और इस कविताका रचिता उसमें कहा हुआ हुये अपने पिता नृपतुगके राज्यके दक्षिण भागका 'विमल' ही होना चाहिये ऐमा मुझे मालूम पड़ता प्रतिनिधि था यह बात है । राजधानी मान्यहै। (२) इस कविताके पहिले दूसरे और २८३ खेटमें तब नृपतुंग गद्दी पर था, यह बात स्पष्ट पद्योंमे इसका नाम 'प्रश्नोत्तररत्नमालिका' कहा है। इसके सिवाय ई० स०८७७ के सोरब नं० ८५ है. 'क' प्रतिके अंतिम पद्यके प्रथम चरणमें इसे वें शासनमे भी तब नपतुंग गद्दी पर था ऐसा 'रत्नमाला' के साथ तुलना किया है, उसके द्वितीय लिखा है और यह बात पहिले भी कही जा चकी चरणमें इसका नाम कहते वक्त 'रत्नमाला' इस है। अतएव ई० स० ८७ तक नृपतुंगने राज्य प्रकार पुनरुक्ति नहीं करते हुये प्रश्नोत्तरमाला त्याग नहीं किया, यह बात व्यक्त होती है। कहना समंजस है । पर 'ख' प्रतिके अंतिम (५) इस 'प्रश्नोत्तररत्नमालिका' के तिब्बत 'मनुष्टम्' श्लोकमें इसे 'रनमालिका' कह कर भाषाके अनुवादमें इसका कर्ता 'अमोघोदय' नाम 'प्रश्नोत्तर' नामके प्रधान पूर्व पदको ही छोड़ का राजा कहा है; इसी बातके आधारसे श्रीमान दिया है। अतः इस काव्यके अंतके वक्तव्य तथा पाठक महाशयने उसे अमोघवर्ष कहा है; परन्तु 'ख' प्रतिके अंतिम पथके वक्तव्यमें परिवर्तन दिखाई यह बात ठीक नहीं है, क्योंकि-(१) 'ख' प्रतिके देनेसे 'ख' प्रतिका अंतिम पध मूल प्रतिमें नहीं : I. A., Vol. XII P. 220.