Book Title: Anekant 1940 Book 03 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 721
________________ मो० जगदीशचन्द्र और उनकी समीक्षा [सम्पादकीय सके पाठक योक जगदीशचन्द्रजी जैन एम. ए. एक लेख लिखा, जो 'अनेकान्त की गत ४ थी फिरत बोडेल परिचिती-उनके कुछ लेखोंको में प्रकाशित हो चुका है। ' ये पद युके हैं। बाप यू. पी० के एक इस लेखमें प्रोफेसरसाहबने विद्वानोको विशेष किरन विधान है। एम. एक के बाद रिसर्चका विचार के लिये प्रामन्वित किया था। तदनुसार मैंने भी कापस करके जिये तक अप बोलपुरके अपना विचार सम्पादकीय-विचारणा' के नामसे सविनिममें एक रिसर्च स्कॉलरके रूपमें रहे हैं। प्रकट कर दिया था-४ पेजके लेखके अनन्तर ही ५ इमार सिंघी जैनमधमाला' के संचालक मुनि पेजकी अपनी 'विचारणा' को भी रख दिया था-, किापियाजीकी बोरसे श्रापको 'प्रजवार्तिक' के सम्पा- जिसमें प्रोफेसर साहबकी मान्यताको आधारभूत युक्तियों दनका कार्य सौंपा गया था, जिसका आपने अपने को सदोष बतलाते और उनका निरसन करते हुए यह पिछले लेखमें उल्लेख किया है, और जो बादको स्थगित स्पष्ट किया गया था कि उन मुद्दों परसे यह बात फलित रहा है। आजकल आप बम्बईके रूहया कालिजमें नहीं होती जिसे प्रो० साहन्न सुझाना चाहते हैं। साथ ही, प्रोफेसर हैं। राजवार्तिक पर कुछ काम करते समय विद्वानोको इस विषय पर अधिक प्रकाश डालनेके लिये आपकी यह धारणा होगई है कि- १ उमास्वातिके प्रेरित भी किया था। तत्वार्यपत्र पर श्वेताम्बर सम्प्रदायमें जो भाष्य प्रचलित अपने अामन्त्रणको इतना शीत्र सफल होते देखकर, है तथा 'स्वोपच' कहा जाता है वह स्वोपज्ञ ही है अर्थात् जहाँ प्रो० साहबको प्रमन्न होना चाहिये था वहाँ यह स्वय मूलसूत्रकार उमास्वातिकी रचना है; २ राजवार्तिक देखकर दुःख तथा खेद होता है कि इतनी अधिक लिखते समय अकलंकदेवके सामने यही भाष्य मौजूद संयत भाषामें लिखी हुई गवेषणापूर्ण विचारणा'को था, ३ अकलंकदेव इस भाष्य तथा मूल तत्त्वार्यसूत्र के पढ़कर भी श्राप कुछ अप्रसन्न हुए है ! अपनी इस कर्ताको एक व्यक्ति मानते थे, और . उन्होंने अपने अप्रसन्नताको अपने उस लेखके प्रारम्भमें ही व्यक्त किया राजकार्तिक में इस भाष्यका यथेष्ट उपयोग किया है, , जो 'सम्पादकीय-विचारणाकी समीक्षा' के रूपमें इतना ही नहीं बल्कि इसके प्रति 'बहुमान' भी प्रदर्शित लिखा गया है तथा इसी किरणमें अन्यत्र प्रकाशित हो किया है। चुनांचे अपनी इस धारणा अथवा मान्यताको रहा है और जिसे प्रो० साहबने अपना वही पुराना दूसरे विद्वानोंके ( जो ऐसा नहीं मानते ) गले उतारनेके "तत्त्वार्थाधिगमभाष्य और अफलंक" शीर्षक दिया है। लिये आपने 'तत्वार्थाधिगमभाष्य और अकलंक'नामका मालूम नहीं आपकी इस अप्रसन्नताका क्या कारण है ?

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