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[ज्येष्ठ, भाषाद, वीर-निर्वाण ०२४१५
साना
सना करता है, वह धर्म तत्वको नहीं जानता, वह देव- प्रकृति में विश्वाम रखने वाला प्रकृतिरूप हो जाता ताओंके पशुके समान है।
है। पशुपक्षियोंकी अज्ञानमय भोगदशाको पमन्द करचे ___ पहिलोके लिये दुःख निवृत्तिका उपाय प्राकृतिक वाला पशु पक्षिरूप हो जाता है । देवताओंमें श्रद्धा विजय है, लौकिक विजय है । उसका साधन, वशीकरन रखने वाला देवतारूप, पितरोंमें श्रद्धा रखने वाला मन्त्रतन्त्र है वैज्ञानिक आविष्कार है। दूमरीके लिये भूतप्रेत रूप होजाता है। और अात्मामें श्रद्धा रखने दुःख-निवृत्तिका उपाय . आत्म-विजय है । उसका वाला श्रात्मस्वरूप होजाता है। माधन इन्द्रिय-संयम है, मन-वचन कायका वशीकरण इस तरह बाह्य दृष्टि वाला संसारकी ओर चला है, आध्यात्मिक शिल्प है।
जाता है और अन्त दृष्टिवाला मोक्षकी ओर चला जाता पहिलीके लिये सुखका मार्ग इच्छावृद्धि है; परि- है। संमारका मार्ग और है और मोक्षका मार्ग और है। ग्रह-वद्धि है, भोगवृद्धि है । दुमरीके लिए सुग्वका मार्ग ममार-मार्गमे चलकर धन-दौलत की प्राप्ति हो इच्छात्याग है, परिग्रहस्याग है, भोगत्याग है। सकती है, परिग्रह अाइम्बर की प्राप्तिहो सकती है, भोग
उपभोगकी प्राप्ति हो मकती है। बल वैभव की प्राप्ति पहिलीके लिए सुखका मार्ग अहकार, विज्ञान और विषयवेदनामें बमा है । दूमरीके लिये सुखमार्ग
हो सकती है, मान मर्यादाकी प्राप्ति हो मकती है । साम्यता, अन्तर्ध्यान और अन्तर्लीनतामें रहता है।
परन्तु पूर्णताकी प्राप्ति नहीं हो मकनी, मुग्व की प्राप्ति पहिलीका मार्ग प्रवृति मार्ग है । दूसरीका मार्ग
नहीं हो सकती, अमृत की प्राप्ति नहीं हो सकती।
____धर्ममार्ग ही ऐसा मार्ग है जिस के द्वारा मनुष्य निवृत्ति-मार्ग है । पहिलीका फल संसार है, दूसरीका।
लौकिक सुम्ब, लौकिक विभूति को प्राप्त होता हुआ फल मोक्ष है।
अन्त में निर्माणसुख को प्राप्त कर लेता है। जो-जैमी श्रद्धा रखता है वैसी ही कामना करता यदि पर्णताकी इच्छा है तो सिद्ध पुरुषो की ओर है, जैसी कामना करता है वैसा ही मार्ग ग्रहण करता देख, यदि अक्षय सुम्स की अभिलाषा है तो निराकुल है, वैसा ही फर्म करता है, जैसा कर्म करता है वैसा ही मुखी पुरुषोंकी ओर देख । यदि अमृत की भावना है मंस्कार, वैसी ही शक्तिको उपजाता है, वैमा ही वह हो तो अमर पुरुषोंकी श्रोर देख । जो उनका मार्ग है उसे जाता है ।
ही ग्रहण कर। पथ यो अन्य देवताम् उपास्ते, अन्यो ऽसौ अन्यो. अम् अस्मीति, न स वेद, पथ परेच स देवानाम्'
--वृक्ष० उप० १.४.१० (मा) श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छृद्धः स एष। (4) अथ खल्वाहः काममयः एवायं पुरुष इति, स सः-गीता १०.३.
यथा कामों यवति, तस्कतुर्भवति यतऋतुर्भवति (इ) निरुतपरिशिष्ट २.६; तत्कर्म कुरुते, यत्कर्म कुरुते तदपिसम्पयते । गोता ७.२१-२३, १. २५.
-बृह. उप० ४-४-१. *धम्मपद ॥ ५॥