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बैनवीन मुक्ति-साधना
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शात या अशात रूपसे अर्जित कोंके फन है । जिम उनका स्वरूप दृष्टान्त-वारा नीचे समझानेका प्रयत्न प्रकार जीव कर्म करनेमें स्वतन्त्र है, अर्थात् कर्म-फलका किया जाता है। प्रदाता ईश्वर नहीं है फल तो स्वाभाविक रूपसे प्राप्त एक सुन्दर सरोवरमें जल भरा हुआ है, समय हो जाते है। जिस प्रकार एक व्यक्ति मदिरा पान करता समय पर उसमें नवोन जल पाता रहे और वह परिहै तो वस्तु स्वभावके गुणसे नशेका आना स्वाभाविक पूर्ण भरा रहे । इसके लिये जलागमनके कई मार्ग रखे है प्रत्येक भातिके पदार्थ अपने अपने गुणोंकी अपेक्षा जाते हैं। जब हमें उस सरोवरको जलसे खाली करना सत् है, कस्तूरीमें गर्मी है अतः उम ग्वाते ही शरीर में होता है । तो प्रथम जलके आनेके मार्गको बन्द कर गग्मी अपने आप आ जाती है, जैमी वस्तु खाते हैं देते हैं और पुराने जलको गरमी द्वारा शोषण करके उसके गुण-दोष शरीरमें स्वाभाविक रूपसे अनुभूत होते या एंच कर निकाल डालना पड़ता है। जब ऐसी क्रिया हैं। देश काल, परिस्थिति, जल-वायु सारे पदार्थोके गुण की जाती है अर्थात् नवीन जल नहीं आने दिया जाता दोष स्वाभाविक रूपसे ही अनुभून होते रहते हैं, उमी और पुराने जलको बाहर फेंक दिया जाता है, तभी प्रकार कर्मका भी जीवके साथ जैसे रूप-स्वभावमें बंध वह खाली हो सकता है। यदि नवीन जल धानेके होता है, उससे उन कर्मों में तदनरूप फल प्रदानकी शक्ति मार्ग बन्द नहीं किये जाते तो चाहे कितना ही प्रयास उत्पन्न होती है, और जब जिम कर्मका उदय होता है, क्यों न करें सरोवर कभी खाली नहीं हो सकता । इधर तब वह अपने स्वभावानुमार फन उत्पन्न करता है। जल निकालने जायेंगे, उधर भरता रहेगा । फलतः ___ यह तो हुई जीव कर्मके सम्बधकी बात, अब यह इष्ट-सिद्धि नहीं होगी । इसी प्रकार जीवरूप सरोवरमें मम्बन्ध किस प्रकारसे अलग हो सकता है उस पर कर्मरूप जल भरा है। जब हमें जीवको काँसे मुक्त विचार करना है । जीपके साथ कमौके सम्बन्ध होनेके करना है, तो आवश्यक है कि हम कर्मके धानेके जितने भी मार्ग है जैन दर्शनमें उन्हें 'श्रासव' तत्व मार्गों रूप प्रास्रव द्वारोंको रोकें, और पूर्व बँधे हुये कहते हैं और कर्मके पानेके मार्गोका विरोध 'सवरतत्व' काँको तप-संयमादिके द्वारा बाहर निकाल कर फेंक दें कर्मोस सम्बन्ध हो जाना 'वन्ध तत्व' जिन कर्मों द्वारा या शोषित करदें। इससे नये कोका बँध होगा नहीं जीवसे कर्म विनास होते है, उन 'निर्जरा-तत्व' और और पर्वके कर्म भोगकर या तपादि सद्गुष्ठानोंसे नष्ट सम्पूर्ण रूपस स्वाभाविक अवस्था प्राप्त कर लेना कर देने पर जीवकी मुक्ति होना अनिवार्य एव स्वाभाअर्थात् कर्मोंसे मुक्ति हो जाना 'भोवतत्व' है । इस प्रकार विक है। जीव और अजीव दो मुख्य तस्वोंके साथ इन पाँच जेनदर्शनकी साधन प्रणालिये तत्त्वोंको जोड़ देनेसे तत्त्वोंकी सख्या ७ हो जाती है। अब यहाँ यह बतलाना आवश्यक है कि कर्मो के कहीं कर्म अासत्र तत्त्वके विशेष स्पष्टीकरण के लिये आगमन के मार्ग प्रास्त्रव-द्वार कौन कौनसे है, कैसे पुण्य और पाप इन दोनोंको पृथक् तत्त्व माना गया उनको रोका जाता है व पूर्व संचित कर्मोका शोषण है, इससे नव तत्त्व कहे गये हैं। इनमेंसे . हमें साधना किस प्रकार हो सकता है। इन बातोकी जानकारी व मार्गमें तीन तत्वोंकी जानकारी परमावश्यक है, अतः उसके अनुसार श्राचरण करना ही साधना है।