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बैनदर्शव मुक्ति-साधना
निर्जरा तस्वके प्रकार
१ पर्वोक्त ५ तोको अपनी शकिके अनुसार अंशतः १ अनशन-श्राहारका त्याग, २ ऊनोदर क्षुधासे पालन करना अणुव्रत है जैसे निरपराधी जीवको कम भोजन करना, वृत्तिसक्षेप-विविध वस्तुओंके मारनेकी बुद्धिसे नहीं मारना, २.३ विशेष अनिष्टकारक लालचको कम करना, ४ रम त्याग-घी, दूध, दही, राजदण्ड व लोक निंदादोने वाला असत्य न बोलना व
वैमी चोरी नहीं करना, ४ पर स्त्री गमनका त्याग, गुह, तेल, व पक्वानका त्याग और मधु, मांस, मक्खन व मदिराका सर्वथा त्याग । ५ कायक्लेश
धनधान्यादिका परिमाण कर लेना. उससे अधिक न ठह गर्मी या विविध अामनादि द्वारा शरीरको कष्ट
रखना। देना, ६ सेलीनता-अंगोपांग संकोच कर रहना,
तीन गुण व्रत-१ चारों दिशाओंमें गमनागमनका एकान्तस्थानम संयत भावसे रहना।
परिमाण दिग् बत, भोग और उपभोगकी वस्तुओंका
परिमाण देशवत ३ अनावश्यक अनर्थ पापोंका त्याग ऊपर के ६ भेद बाह्य तपके हैं, श्राभ्यतरिक ६ भेद ,
अनर्थदण्डत्यागबत ओर ४ शिक्षाबत
१ मामायिक ( नियत समय तक सम भावसे रहना) १ प्रायश्चित-दोष शोधन, २ विनय,३ वैयावृत्य
२ देशावकालिक-पूर्व परिमाण जो जीवन भरके संवा, ४ स्वाध्याय-वाचना पृच्छना, परावर्तना।
लिये किया है प्रत्येक दिन व समय के लिये संक्षेप, (आम्नाय ) अनुप्रेक्षा, धर्मोपदेशरूप, ५ ध्यान,
३ पोपध-उपवामपूर्वक शरीर विभपाका त्याग कर ६ उत्सर्ग-धनधान्य एवं शरादिका ममत्व हटाना
धर्मम नसर होना ४ सुपात्र साधुत्रों श्रादिको दान। और कापायिक विकारों में तन्मयताका स्याग ।
जीवका कर्म बन्धनम मुक्त हो जाना ही 'मुक्ति' है, यहां पर लेख विस्तार भयमे मुख्य मेदोंका ही इम अवस्थाको प्राप्त होने पर प्रात्मा निर्लेप, निर्विकार निर्देश किया है इनमेंसे एक एक भेद भी अनेक प्रकार एवं अनन्त शक्तिको प्राप्त होता है। जीवका स्वभाव हैं, उन मबका स्वरूप जानने के लिये तत्वार्थसूत्र, ऊर्ध्वगती-गामी कहा जाता है । अतः बन्धन के कारण नवपदार्थ ज्ञानमार आदि ग्रन्थाका अध्ययन करना जीवका स्वभाव अाच्छादित था, वह मुक्त होते ही प्रगट चाहिये।
होता है, और उमके कारण प्रात्मा सब देव लोकोंके सब माधकोंकी योग्यता एकसी नहीं होती, अतः कार जो स्फटिक रत्नकी मिद्ध शिला है उससे एक योग्यताके तारतम्यके अनुसार दो प्रकारकी साधना योजन के बाद लोकका अन्त आता है, वहाँ जाकर बतलाई गई हैं:-१ गृहस्थ और २ मुनि । इनमेसे निवास करना है । मुक्तावस्था प्राप्त श्रात्माएँ अपने ध्येय मुनियों के ५ व्रत होते हैं १ अहिंसा, २ त्याग, ३ .अचौर्य की सम्पूर्ण सिद्धि कर लेती हैं अतः वे 'सिद्ध' कहलाते ४ ब्रह्मचर्य ५ अपरिग्रह इन पांचो व्रतोको सम्पूर्ण रूपसे हैं। ऐसे सिद्ध अनन्त हैं, फिर भी अरूपी होनेके कारण पालन करना मुनिका धर्म है और अंशतः पालन करना न तो स्थानाभाव एवं भीड़ ही होती है और न शरीरके गृहस्थका धर्म है । गृहस्थके ब्रत १२ कहे जाते हैं, वे अभावके करण वहां जगह रुकनी है, एक ही स्थानमें इस प्रकार हैं:
अनन्त आत्माओंके रहने पर भी एक दूसरेके लिये