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[श्रावण, वीर निर्माण सं०२४१६
और यह सर्गविभाग भी कथावस्तुमें दिखाई नहीं है । अथवा इस 'पार्श्वभ्युदय' को ही कंवलदेने वाले समन्वयके भावश्यकीय परिच्छेदोंके 'भगवत्कैवल्यवर्णन' नामांतर (इसके विषयानुसार) अनुकूल न रह कर 'मेघदूत' से समस्यापतिके दिया होगा तो सीन्तम गद्य में-"पार्वाभ्युदये लिये लिया गया पाद......ठीक न रह कर कृत्रिम भगवत्कैवल्यवर्णना प्रथमः,द्वितियः,इत्यादि)सर्ग:" रूपसे किया गया मालूम पड़ता है। इससे जिनसेन रहना चाहिये, जैम है वैसे रहनेका क्या कारण ने यह सर्ग-विभाग नहीं किया किन्तु उससे उपरान्त है ? इससे यह मालूम होता है कि प्रत्येक सर्गका के किसीने किया मालूम पड़ता है। इसके सिवाय अन्तिम गद्य जिनसेनका लिखा हुआ नहीं, और अनर्गल रूपसे बहने वाले ( ३६४ पद्योंसे युक्त) किसीका लिखा होगा। इस छोटेसे कथानक में मर्ग विभक्ति की आवश्य- ३. इम 'पार्वाभ्युदय' के ऊपर योगिराट् कता क्यों हुई सो मालूम नहीं पड़ता। पंडिताचार्यने व्याख्या लिखी है। इसने ई० सन्
१३९९ मे रचे हुए 'नानार्थमाला' कोषका उल्लेख २. किसी काव्यमें अनेक सर्ग हों तो उन
अपनी व्याख्यामे कई जगह पर किया है,इससे यह सोंके अन्तमें दिये हुए गद्यमें उस सगमें वर्णित
टीकाकार बहुत पीछे हुआ मालूम पड़ता है; याने विषय को सूचना देन रूपसे कहनका रिवाज है,
जिनसेनसे करीब ५५०-६०० वर्षोंसे पीछेका व्यक्ति अथवा उन सोंको कविने अन्यान्य नाम न दिया
मालूम पड़ता है । इसने अपनी व्याख्याके प्रति हो तो अपने काव्यमें अमुक सर्ग समाप्त हुआ
सर्गके अन्तिम स्थानमें अन्य व्याख्याताकी तरह कहने का रिवाज है । पर तमाम सर्गोका नाम एक
व्याख्या जिस पर लिखी गई है उस काव्य के तथा रखनेका रिवाज कहीं है क्या ? इस काव्यके
व्याख्याके नाम के साथ साथ-'इस्यमोघवर्षप्रत्येक सर्गके अन्तमें उम मर्गको 'भगवत्कैव
परमेश्वरपरमगुरुश्री जिनसेनाचार्यविरचितमेघदूतवेष्टित. ल्यवर्णनं नाम' कहा है । अपने 'आदिपुराण'
वेष्टिते पार्श्वभ्युदये तद्व्याख्यायां च सुबोधिन्याख्यायां के प्रत्येक सर्गमें उसकी वर्णनानुकूल पृथक् पृथक्
२ भगवत्कैवल्यवर्णनं नाम प्रथमः ( द्वितीयः तृतीयः, समंजस नाम दिया हुआ होनेसे महाकवि
चतुर्थः, सर्गः ) इस प्रकार दिया है । इसमें जिनसेन द्वारा सिफ पाश्र्वाभ्युदय में इस प्रकारका पाश्चाभ्यदय' और 'भगवनकैवल्यवर्णनं' के बीच दृष्टिदोष (Oversight) हो जाने की सम्भावना
- "-"" में इसने अपनी व्याख्या का नाम भी कहा है, अतः (उदा०-दूसरे सर्गके आदिमें 'इतः पादवेष्टि- वह 'भगवतकैवल्यवर्णन' विशेषवाचिको ( उस तानि', तीसरे सर्गके आदिमें :'इतोर्धवेष्टितानि', चौथे काव्यका नाम तथा सर्गका नाम) इसने ही जोड़ा सर्गके प्रारंभमें 'इतः पादवेष्टितानि' इस प्रकार सूचना होगा,ऐसा व्यक्त होता है, वैसे ही अपनी व्याख्या है। अतएव इस काव्यको सर्गरूपसे उसने हो विमा- के अन्तिम गद्यमें अनावश्यक 'अमोघवर्षपरमेजित किया या व्यापाताने किया, · ऐसा मालूम वरपरमगुरूजिनसेनाचार्य' इस प्रकार पुन
रुक्तिदोषका भी खयाल नहीं करके जोर जोरसे