________________
तत्वार्थाधिगमभाष्य और अकलंक
[ले०-प्रोफेसर जगदीशचन्द्र जैन, एम. ए.] मैंने "तत्वार्थाधिगमभाष्य और अकलंक" समर्थनमें मुख्तार साहबकी सबमे बलबती युक्ति
'नामका एक लेख फर्वरी १६४०के "अनेकान्त" यह है कि प्रस्तुतभाध्यमें षडव्यका कहीं भी एक (३-४ ) में लिखा था । इस लेख में यह बतलाया बार भी उल्लेग्व नहीं मिलता, जब कि अकलंकने गया था कि तत्वार्थराजवार्तिक लिखते ममय "यद्भाध्ये बहुकृत्वः पद्रव्याणि" लिख कर किसी अकलंकदेवकं सामनं उमास्वातिका स्वोपज्ञ नत्वा- दूसरे ही भाष्यकी ओर संकेत किया है, जिसमें
धिगमभाष्य मौजूद था, और उन्होंने इस भाष्य- षड्द्रव्यका बहुत वार उल्लेख किया हो। इसी युक्ति का अपने ग्रन्थमें उपयोग किया है। शायद पं० के आधार पर मुख्तार साहबने मेरे दूसरे मुद्दोंको जुगलकिशोर जीको यह बात न अँची, और उन्होंने भी असंगत ठहरा दिया है-उन पर विचार करने मेरे लेखक अन्तमें एक लम्बी चौड़ी टिप्पणी लगा की भी कोई आवश्यकता नहीं समझी। दी । हमारी समझप इस तरह के रिमर्च-सम्बन्धी लेकिन यहाँ प्रश्न हो सकता है कि वह कौनसा जो विवादास्पद विषय हैं, उन पर पाठकों को कुछ भाष्य था, जिसको सामने रख कर अकलंकदेवने समयके लिये स्वतन्त्र रूपमें विचार करने देना रजवार्तिककी रचना की ? पूज्यपाद अथवा समन्तचाहिये । मम्पादकको यदि कुछ लिखना ही इष्ट भद्रक ग्रन्थों में तो ऐम किमी भाष्यका उल्लेख अब हो तो वह स्वतन्त्र लेखक रूपमे भी लिखा जा तक पाया नहीं गया । 'अर्हत्प्रवचनहृदय' नामक सकता है । साथ ही, यह आवश्यक नहीं कि लेखक कोई अन्य भाप्य या ग्रन्थ भी अब तक कहीं सुनने सम्पादकके विचारोंसे सर्वथा सहमत ही हो। में नहीं आया। यदि ऐम किसी भाष्यका अस्तित्व भस्तु, यह इम लेखका विषय नहीं है। हम यहाँ सिद्ध हो जाय तो यह कहा जा सकता है कि कंवल हमारे लेख पर जो "सम्पादकीय विचारणा" अकलंकके सामने कोई दूसरा भाष्य था । मतलब नामकी टिप्पणी लगाई गई है, उसीकी समीक्षा यह है कि मुख्तारसाहबके प्रस्तुन तत्वार्थभाध्यके करना चाहते हैं।
अकलंक समक्ष न होने में जो प्रमाण हैं वे केवल पं०जुगलकिशोरजीका कहना है कि राजवार्तिक- इस तर्क पर अवलम्बिन हैं कि इसी तरह के वाक्यकारके सामने कोई दूसरा ही भाष्य मौजूद था, विन्यास और कथनवाला कोई दूसरा भाष्य रहा
और इस भाष्यक पदोंका वाक्य-विन्यास और होगा, जो आजकल अनुपलब्ध है। लेकिन यह कथन सम्भवतः प्रस्तुत उमास्वातिके स्वोपन तत्वा- तर्क सर्वथा निर्दोष नहीं कहा जासकता । ाधिगमभाष्यके समान था । इस कथनके हम यहाँ यह बताना चाहते हैं कि राजवार्तिक