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कार्तिक, वीरनिर्वाण सं०२४६६]
वीतराग प्रतिमाओंकी अजीब प्रतिष्ठा विधि
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ही करते हैं, बाकी जो सैकड़ों जैनी मंदिरमें आते हैं और अपने हृदयमें बिठाते रहनेसे हृदयमें उनकी भकि वीतराग प्रतिमाके दर्शन करके सबही तीर्थंकरोंको स्मरण स्तुति करते रहनेसे-रवक्त ही हमारे भावोंकी शुद्धि होती कर, उनकी भक्ति स्तुति करते हैं और चावल, लौंग, रहती है और यह भक्ति स्तुति हम बार बार हर जगह बादाम आदि हाथमें जो हो वह भक्तिसहित सबही कर सकते हैं। यहाँ प्रतिमा हो या न हो, इस बातकी तीर्थकरोंको चढ़ाते हैं, तो क्या स्थापनाके बिना वह कोई जरूरत नहीं है। परम वीतरागरूप प्रतिमाके दर्शन उनकी भक्तिस्तुति बिल्कुल ही निरर्थक होती है । इसके तो हमको वीतरागताकी उत्तेजना दे देते हैं, उससे बीतअलावा मंदिरके समयसे अलग जो लोग अपने घरपर रागरूप भावोंकी उत्तेजना होने पर हमारा यह काम है या मंदिर के एक कोने में बैठकर २४ तीर्थंकरोंका या पंच- कि परम वीतरागी पुरुषों, आईतो, सिद्धों, और साधुनोंको परमेष्ठीका जाप करते है-हृदयसे उनकी भक्तिस्तुति याद करकर उस वीतरागरूप भावको हृदयमें जमाते और बंदना करते हैं तो क्या स्थापना न करनेसे या रहें और जब जब भी मौका मिले उनके गुणोंकी भक्तिउनकी मूर्ति सामने न होनेसे जिनकी वे भक्तिस्तुति स्तुति और पूजा बंदना अपने हृदयमें करते रहें । और करते हैं उनकी वह भक्तिस्तुति या जाप श्रादि व्यर्य यदि हो सके तो दिनमें कोई २ समय ऐसा स्थिर करले ही जाता है । नहीं नहीं ! व्यर्थ नहीं जाता है । यदि वे जब एकान्तमें बैठकर स्थिर चित्तसे उनकी भक्तिस्तुति उनके वीतरागरूप गुणोंको याद करके, उन गुणोंकी पूजा बंदना कर सकें, जिसके वास्ते हर वक्त प्रतिमा भक्ति स्तुति करते है तो बेशक उनका यह कार्य महा- सामने रखने व स्थापना करनेकी ज़रूरत नहीं है। यह कार्यकारी और फलदायक होता है । यह ही जैनशानों- सब तो हृदय मन्दिर में ही हो जाती है। का स्पष्ट श्राशय है । जिससे यह साफ़ सिद्ध है कि इस प्रकार जब वीतरागरूप मूर्तिसे मूर्तिका ही काम भक्ति स्तुति और पूजा बंदनाके वास्ते न तो प्रतिमा ही लिया जाता है; उसको साक्षात तीर्थकर माननेसे साफ़ र ज़रूरी है और न स्थापना या जलचन्दनादि द्रव्य इनकार किया जाता है। किसी प्रकार भी अपनेको मतिही, किन्तु एकमात्र वीतरागरूप परमेष्ठियोंके वैराग्य पूजक नहीं बताया जाता है। और मूर्ति भी बीतरागलप
और त्यागरूप गुणांकी बड़ाई अपने हृदय में बैठानेकी ही रखनेकी ताकीद है। कोई वस्त्र अलंकार यहाँ तक ही ज़रूरत है। जिससे हमारे पापी हृदयमेंसे भी रागद्वेष कि अगर एक तागा भी उस पर पड़ जाय तो वह कामरूप मैल कम हो होकर हमारा हृदय भी कुछ पवित्र की नहीं रहती है; तो गर्भ-जन्म, खेल-कूद और राजहोने लग जाय, हमारे हृदयमें भी वीतरागरूप भावोंको भोग प्रादिका संस्कार उसमें पैदा करनेकी क्या जरूरत स्थान मिलने लग जाय । और हम भी कल्याणके मार्ग है, जो प्रतिष्ठा विषिके द्वारा कुछ दिनोंसे किया जाना पर लगने के योग्य हो जायें।
शुरू हो रहा है। हम दिगम्बर-श्राम्नायके माननेवाले बेशक तीर्थकरोंकी वीतरागरूप प्रतिमाके दर्शनसे जैनी, तीर्थकर भगवान्की राजअवस्थाकी मूर्तिको भी हमको वैराग्यकी उत्तेजना मिलती है, परन्तु भी माननेसे साफ इनकार करते है। अनेक तीर्थंकरों ने तीर्थंकरों, सिदों और सब ही बीतरागी साधुओंके वीत- विवाह कगया है। यदि उनकी उस अवस्थाकी मूर्ति रागरूप गुणोंको पार करके, उन गुणोंकी प्रतिष्ठा उनकी स्त्रियों सहित बनाई जाय, जो तीर्थंकर पावती