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वर्ष ३, किरण
हरिभद्रसरि
करने लगे और सैकड़ों ग्रंथ-भंडार नेस्तनाबूद कर दिये शेष थे। भारतपर मुसलमानोंके मामय प्रारम्भ हुए। गये।
धमापहरणके साथ २ धांध मुसलमानोंने भारतीय ___ कुछ कान पश्चात् बौद्ध साधुभोंमें भी विकृति और साहित्य भी नष्ट करना प्रारम्भ किया और इस तरह शिथिलता मागई, इन्द्रिय पोषणकी घोर प्रवृत्ति अधिक बचा हुआ जैन साहित्यका भी बहुत कुछ अंश इस बढ़ गई; केवल शुष्क तर्क-जालके बलसे ही अपनी म. राज्य-क्रांति के समय काज-कवलित हो गया । उस काल
वाकी रक्षा करने लगे; और इतर धर्मोके प्रति विद्वेष में जैनसाहित्यकी रक्षा करनेके पटकोणसे बचा हुधा की भावनामें और भी अधिक वृद्धि कर दी । यही कार- साहित्य गुप्त भंडारों में रखा जाने लगा; किन्तु कुछ रेसे ण था कि बौद्धोंको निकालनेके लिये समय भाते ही रक्षक भी मिले, जिनके उत्तराधिकारियोंने भंडारों उत्तर भारतमें शंकराचार्यने प्रयत्न किया, दक्षिणमें कु मुख सैंकड़ों वर्षों तक नहीं खोला; परिणाम स्वरूप मारिल भट्टने प्रयास किया और गुजरात प्रादि प्रदेशोंमें बहुत कुछ साहित्य कीट-कवलित हो गया; पते सद जैनाचार्योंने इस दिशामें योग दिया। बौद्धोंका बल गये- गल गये और अस्त-व्यस्त हो गये । इस प्रकार क्रमशः घटने लगा और वैदिक सत्ता पुनः धीरे २ जैन साहित्य पर दुःखोका ढेर लग गया, वह कहां तक अपने पूर्व प्रासनपर पाकर जमने लगी। अनेक राजा जीवित रहना ? यही कारण है कि हरिभवसरिक पूर्वमहाराजा पुनः वैदिक धर्ममें दीक्षित होगये और इस का माहिल्य : भागके बराबर है और बारका : भागके तरह वैदिक धर्म अपनी पूर्वावस्था में थाने ही बौदधर्म बराबर है। यह तो हुआ हरिभद्र सूरिके पूर्व कालीन के साथ २ जैनधर्मका भी नाश करनेके लिये उद्यत हो और तत्कालीन माहित्यिक स्थितिका सिंहावलोकन । गया। इस तरह पहले बौद्ध दार्शनिक और बादमें भव इसी प्रकार भाचार-विषयक स्थितिकी पोर टिवैविक दार्शनिक. दोनों ही जैन माहिन्यपर टूट पड़े और पान करना भी अप्रासंगिक नहीं होगा। अनेक जैन साहित्यक प्राचीन भंडारोंको अग्निक यह पहले लिया जा चुका है कि प्राचार-विषयक समर्पण कर उसे नष्ट कर दिया । इन कारणों के साधर फटका इतना गहरा प्रभाव हो चुका था कि जिसमे भयंकर दुष्काल और राज्य-क्रॉनियाँ भी जैन-साहित्यको श्वेताम्बर और दिगम्बर रूपसे दो भेद होगगे थे। नष्ट करनेमें कारणरूप हुई है। यही कारण है कि हरि- स्थिनि यहीं तक नहीं रुक गई थी। भाचार शिथिलता भद्रसूरिक पूर्व जैन-माहित्य इतनी अल्प मात्रामें ही दिनों-दिन बढ़ती गई । इन्द्रिय विजयना भीर इन्द्रिय पाया जाता है। जो कुछ भी वर्तमानमें उपलब्ध है, दमनके स्थान पर इन्द्रिय लोलुपता, स्वार्थ-परता एवं उसका है भाग हरिभद्रसूरिके कालपे लगाकर तत्पश्चात् यशो-लिप्मा श्रादि अनेक दुगुणोंका साम्राज्य-भाचार कालका है। अतः जैन साहित्य-पेत्रमें हरिभद्रसूरिका क्षेत्रमें अपना पर धीरे २ किनु मजबनीके माध जमाने असाधारण स्थान है, यह निस्संकोचरूपसं कहा जा खग गया था । माधुभांका पतन शोचनीय दशाको सकता है।
प्रास हो गया था। प्राचार्य हरिभवमूरिन इस परिभारतीय साहित्यका दैवदुषिपाक यहीं तक समाह स्थिति की भन्यंत कठोर समालोचना की है। भापती नहीं हो गया था, उसकेमाम्यमें और भी दुःख देखने की शक्तिका यह प्रभाव था कि जिससे जनता और