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परवार बातिके इतिहास पर कुछ प्रकाश
श्वेताम्बर सम्प्रदायके विद्वानोंने अवश्य ही इम प्राग्वाट बणिकोंमें श्रेष्ठ कहा है। एक और शिलाओर बहुत ध्यान दिया है । उनके प्रकाशित किये हुए लेख दुबकुंड ( ग्वालियर ) गांवमें सं० ११४५ का है। कई हजार लेखोंको मैंने देखा है परन्तु उनमें भी कोई जिसमें वहाँके दिगम्बर जैन मन्दिरके निर्माताको लेख ग्यारहवीं शताब्दीके पहिनेका ऐसा नहीं मिला 'जावसपूर्विनिर्गतवणिवंश' का सूर्य कहा है। इसका जिममें किसी जातिका उल्लेख हो ।
अर्थ होता है पूर्वमें जायससे निकले हुए वैश्य वंशंका इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि वर्तमान जाति- प्रसिद्ध पुरुष । यह वह समय मालूम होता है जब याँ नौवीं-दसवीं शताब्दीमें पैदा हुई होनी चाहिएँ +। जातियोंको नाम प्राप्त हो रहा था अर्थात् उनके संघों और यही समय परवार जातिकी उत्पत्तिका भी होगा। या जत्थोंको उनके निकासके स्थानके नामसे अमिहित
किया जाने लगा था । जातियोंकी उत्पत्तिके पहलेकी सामाजिक
दक्षिण महाराष्ट्र और उससे और नीचेके भागके अवस्था-गोष्ठियाँ
धर्मानुयायियोंमें तो उत्तर भारतके समान जाति-संस्था ग्यारहवीं मदीके कई लेख ऐसे मिले हैं जिनमें का विस्तार शायद हुआ ही नहीं। जैन शिलालेख मन्दिरों या प्रतिमाओंके स्थापित करनेवालोंको या तो सग्रहके शक स० १०४२ के न० ४६ ( १२६ ) मे केवल 'श्रावक' विशेषण दिया गया है या गोष्ठिक। चामुड नामक राजमान्यवणिक् की पल्ली देवमतीके इमीसं ऐसा मालम होता है कि जातियाँ निर्माण होनेके समाधिमरणका उल्लेख है । उसमें किसी जातिका पहले गोठयाँ थीं जिन्हे हम मंघ, या जत्थे कह सकते।
निर्देश नहीं। शक १०५६ के लेख नम्बर ६८ (१५६)
में चट्टिकव्वे नामक स्त्रीने अपने पति मल्लिसेहिकी सिरोही राज्यके कायन्द्रागाँवके श्वेताम्बर जैन निषद्या बनवाई। इसी तरह नं० ७८ (१८२), ८१ मन्दिरको एक देवकुलिका पर वि० स० १०६१ का लेख
(१८६), ६२ (२४२), ३२६ (१३७) के भी हैं जिन
में सबको सेहि (श्रेष्ठि) या व्यापारी ही लिखा है। इन है, जिसमें उसके निर्माताको 'भिल्लमालनिर्यातः प्राग्वाट
से यह स्पष्ट है कि निदान विक्रमकी १३वीं शताब्दी पणिजांवरः' अर्थात् भिल्लमालसे निकाला हुआ
" तक कर्नाटकमे वैश्यांकी विविध जातियाँ नहीं थीं। लेखसंग्रह ये वो ही संग्रह प्रकाशित हुए हैं। पहलेमें असगकविका महावीर चरित सं० ६१० (शायद मैनपुरी. एटा भादिके मन्दिरोंकी प्रतिमामोके लेख हैं शक संवत् ) चोल देशकी विरला नगरीमें बना है। और पिछलेमें श्रवणबेलगोजा और उसके समीपके ही असगने अपने पिता पटुमतिको केवल श्रावक लिखा लेखो।
है। अर्थात चोल देशमें भी विक्रमकी ग्यारहवीं सदी + स्वर्गीय इतिहासज्ञ पं० चिन्तामणि विनायक तक वैश्योंकी वर्तमान जातियाँ नहीं थीं। . वैचने अपने 'मध्ययुगीन भारत में लिखा है कि विक्रमकी मुनि श्री बिनविजयजी सम्पादित 'प्राचीन और पाठवीं शताब्दी तक बामणों और पत्रियों के समान लेखसंग्रह केहि भागका ४२० 4 नवराज ।... वैश्योंकी सारे भारसमें एक ही जाति थी।
एपिवामिया इंग्लिा नि
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