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बनेकान्त
[ज्येष्ठ, भाषाद, बीर-निर्वाव सं०२४१५
का निश्चय करना आवश्यक है, जिससे दो भागों लोग यह मानते हैं, कि कुरु पांचालीय वैदिकोंके में विद्यमान कतिपय मौलिक भिन्नताओंको समझा द्वारा अत्यंत उस माने गए वाजपेय यज्ञके स्थानमें जा सके। प्रायोंके दो समुदायों के मध्य विद्यमान राजसूय या श्रेष्ठ है। कुछ मरण उन कारणों में राजनैतिक तथा सस्कृितिक भेदोंके सद्भावको से हैं जो पूर्वीय देशोंमें कुरु पांचालीय वैदिक ब्राह्मण-साहित्य स्पष्टतया बताता है । भनेक अव- ब्राह्मणोंका पर्यटन क्यों निषिद्ध है, इस विषयमें सरों पर पूर्वीय पार्योंके विरुद्ध पूर्वीय देशकी भोर बतलाए गए हैं। सेनाएँ ले जाई गई थीं । ब्राह्मण-साहित्यमें दो पंचविंशब्राह्मणके एक प्रमाणसे यह अनुमान अथवा तीन प्रधान बातोंका उल्लेख है, जो सांस्कृ- निकाला जा सकता है कि कुछ समय तक आर्योतिक भिन्नताके लिए मनोरंजक साक्षीका काम के क्रियाकाण्ड विरोधी दलोंका विशेष प्राबाल्य देती हैं। काशी, कौशल, विदेह और मगधके था और वे लोग इन्द्र याके, जिसमें बलि करना पूर्वीय देशोंमें व्यवहार करनेके सम्बन्धमें शतपथ भी शामिल था, विरुद्ध उपदेश करते थे। जो इन्द्रब्राह्मणमें पांचाल देशीय कट्टर ब्राह्मणोंको सचेत पूजा तथा यज्ञात्मक क्रियाकाण्डके विपरीत उपदेश किया गया है । उसमें बताया गया है कि कुरु देते थे, नन्हें मुंडित मुंड यतियोंके रूपमें बताया पांचाल देशीय ब्राह्मणोंका इन पूर्वीय देशोंमें जाना है। जब वैदिक दलके प्रभावसे प्रभावित एक बलसुरक्षित नहीं है, क्योंकि इन देशोंके आर्य लोग शाली नरेशके द्वारा 'इन्द्र यज्ञ' का पुनरुद्धार किया वैदिक विधि विधान-सम्बन्धी धर्मोको भूल गए हैं गया, तब इन यतियोंका ध्वंस किया गया और इतना ही नहीं कि उन्होंने बलि करना छोड़ दिया इनके सिर काट करके भेड़ियोंकी भोर फेंक दिये बल्कि उनने एक नए धर्मको प्रारंभ किया है, जिस गये थे। जैनेतर साहित्यमें वर्णित ये पाने विशेष के अनुसार पलि न करना स्वयं यथार्थ धर्म है। महत्वपूर्ण हैं क्योंकि ये पहिसाधर्मकी प्राचीनताकी ऐसे भवैदिक आर्योसे तुम किस सन्मानकी भाशा ओर संकेत करती हैं। कर सकते हो, जिन्होंने धर्मके प्रति पादर-सन्मान पप जैन साहित्यकी भोर देखिये, उसमें भाप का भाव छोड़ दिया है । इतना ही नहीं, वेदोंकी क्या पाते हैं ? ऋषभदेवसे लेकर महावीर पर्यन्त भाषासे भी जिन्होंने अपना सम्पर्क नहीं रक्खा है। चौबीस तीर्थकर हैं, जो सब क्षत्रियवंशके वे संस्कृतके शब्दोंका शुद्धता पूर्वक उचारण नहीं हैं। यह कहा जाता है कि प्रादि वीर्थकर भगवान कर सकते । उदाहरण के तौर पर संस्कृतमें जहां ऋषभने पहले अहिंसा सिद्धान्तका उपदेश दिया राता है वहाँ 'ज' का धारण करते हैं। था तथा तपश्चर्या अथवा योग द्वारा प्रात्मसिद्धी
इसके सिवाय इन पूर्वीय देशोंके क्षत्रियोंने को मोर शानियोंका ध्यान आकर्षित किया था। सामाजिक महत्व प्राप्त कर लिया है, यहाँ तक कि इन जैन तीर्थंकरोंमें अधिकतम पूर्वीय देशोंसे
अपमेको प्रामणसे बड़ा बताते हैं । क्षत्रियोंके. सम्बन्धित हैं । अयोध्यासे ऋषभदेव, मगधसे नेहत्व में सामाजिक गौरवके अनुरूप पूर्वीय पार्य महावीर और मध्यवर्ती बावीस वीर्षकका बहुधा