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भनेकान्त
[फाल्गुन वीर-निर्वाण सं० २०६६
काल और कर्मनष्ट हो जानेपर वे एक ही हैं क्योंकि है। श्रीयोगीन्दुदेवने परमात्मप्रकाशमें अच्छा कहा हैकालकर्म कुछ जीव थोड़े ही हैं। जैसा कि निम्न वाक्यो परमसमाहि धरेवि मुखि, के परवंमुख जति ।
ते भवदुक्खा बहुविहई, काबु भयंतु सहति ॥३२ बीच भेट विसम्मकित, कम्मुवि जीव सोह। अर्थात्-परमसमाधिको धारण करके भी जो
व विमिराबर होताई, काल बहेवियु को मुनि परब्रह्मको नहीं प्राप्त होते वे अनेक तहके संसारएकको मब विरिख परि, में करि परणविसेसु । दुःख अनंतकाल तक सहते हैं । वास्तवमें उनकी विषयइदं देवई जिवस, तिहुपण एहु असेसु ॥ २५४ वासना नष्ट नहीं होती, चाहे वह मोक्षकी ही क्यों न हो;
-योगीन्दुदेव-परमात्मप्रकाश क्योंकि वासना अशक्तिसे ही उत्पन्न होती है । अर्थात्--जीवोंमें जो भेद है वह कर्मोंका किया बुद्धदेवने योगाभ्यासको गौण और सेवाधर्मको हुना है, कर्म जीव नहीं होता किसी कालको पाकर मुख्य रक्खा है, परंतु जैनादि धर्मों में दोनोंको समान उनके द्वारा ( कों द्वारा ) वह विभिन्न होता है । इस- कोटिमें रक्खा मालूम होता है और मोक्ष के लिये दोनोंका लिये, हे योगी ! श्रात्माको एक ही समझ उन्हें दो मत साथ साथ अभ्याम श्रावश्यक माना है। कर और न उममें कोई वर्ण भेद कर । यह अशेष
जैनधर्म तथा वैदिक धर्ममें सेवामार्ग के लिये तथा त्रिभुवन एक ही देव-द्वारा वसा है ऐसा समझ। निम्न प्रकृति के लोगोंमें प्रेमके विकासके लिये गृहस्थाअर्थात् सब जीवोंमें श्रात्माका दर्शन कर। श्रम उपयुक्त माना गया है । राजमिक और सामसिक
ईश्वर के उपर्युक्त अर्थों पर विचार करनेसे ईश्वर- प्रकृतिवालोंके कठोर, स्वार्थी निप्रेम हृदय प्रायः विवाह प्रेमका मार्ग शीन हाथ लग जायगा । सब जीवोंमें के द्वारा ही मृदु, निःस्वार्थ और प्रेमसे भीने बनाये जा प्रास्माका दर्शन करो-समाजकी, देशकी तथा विश्व सकते हैं । साविक ईतर-प्रेमके लिये इन्हीं वस्तुत्रोंकी की प्रत्येक व्यष्टि पर प्रेम करो और उसकी सेवा करो। आवश्यकता है । शरीर और स्वास्थ्य पर भी इम प्रेमईश्वरको पहिचाननेका सेवासे बढ़कर स्पष्ट कोई उपाय का बड़ा अच्छा असर होता है । पहले जो दुर्बल,शोकनहीं है। बुद्धदेवने तो अपने मित्रोको यहाँ तक उप- ग्रस्त और दुखी होते हैं उनमें अधिकांश विवाह के बाद देश दिया है कि यदि तुम्हें समाधि-द्वारा मोक्षकी भी हृष्ट-पुष्ट, खुश और संतुष्ट मालूम होने लगते हैं। प्राप्ति होने वाली ही हो और उस समय किसीको मस्तिष्क-विद्या ( Phrenology) तथा शरीर-विद्याके तुम्हारी सेवाकी आवश्यकता हो तो समाधि छोड़कर प्राचार्योंका कथन हैं कि प्रेमका असर शरीरके प्रत्येक पहले उस प्राणीकी सुभुषा करो। मोह चाहे वह मोक्षका अवयव पर अपूर्व दिखाई देता है। हृदय और फुप्फुही क्यों न हो, मोक्षका विघातक ही है। इसी प्रकार सपर अजब प्रभाव पड़ता है। मस्तक और हृदय इन यदि देश तुमारा बलिदान चाहता है तो कायर बनकर दोनोंको एक कर र लनेकी मंथन क्रिया शुरू हो जाती यदि तुम मुनि हो जानो और समाधि साध कर बैठो तो है। इदयमें रूधिरका प्रवाह तीन वेगसे बहने लगता है, मी तुम्हें कुछ मिलने वाला नहीं है क्योंकि कायरतासे फुप्फुसोंमें गतिका संचार होता है और मुख-गाल-श्रोष्ठ परराम प्राप्त नहीं होता। कायरता प्रयतकी वासना तथा नयन इनमें प्रेमकीलाली दौड़ पाती है। मस्तिष्क