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अनेकान्त
[चाल्गुन वीर निर्वावसं• २५॥
पचार हो गया है और अहिंसा का एक नाम ही बाकी हुई हिंसाको बन्द कराकर सुख और शान्ति का मार्ग रागया है।
चलाया वार भगवान के उस कल्याण कारी तत्व उपदेश अन्तमें हम सब ही पाठकोंसे प्रार्थना करते है कि को और सुख और शान्तिके देनेवाले उस दया धर्मको वह वीर भगवानके उपदेशको पढ़ें और वस्तु स्वभावको श्राप भी सब तक पहुंचावें । अाजकलमें जो हिंसा हो समझें । जैनियोंसे भी हमारी यह प्रार्थना है कि आप ही रही है उसका बन्द न होना क्या श्राप होकी ग़फ़लतका बीर भगवानके उपदेशोंके अमानतदार है इस ही कारण नतीजा नहीं है ? पूरी तरह प्रयत्न करलेने पर भी कार्य इस बातके जिम्मेदार हैं कि वीर भगवानने जीव मात्रके की सिद्धि न होने में मनुष्य अपनी जिम्मेदारीसे बच जाता कल्याणके अर्थ ३० वर्ष तक ग्राम २ फिर कर जिम है, परन्तु कुछ भी प्रयत्न न करने की अवस्था में तो सारा धर्म तत्वको सब लोगों को सुनाया, उम समयम होती दोष अपने ऊपर ही आता है।
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(१) जीतकल्पसूत्र (स्वोपज्ञ भाष्य भूषित )- अर्थ 'पूर्व' होता है, यह निर्णय किया है कि यह भाष्य लेखक, श्रीजिनभद्रगणिक्षमाश्रमण । संशोधक (संपादक) उन्हीं जिनभद्रगणि क्षमाश्रमणका बनाया हुआ है जो मुनि श्री पुण्यवि जय । प्रकाशक, भाई श्री बबलचन्द्र श्रावश्यक-भाष्यके कर्ता है, और इसीसे उन्होंने इस केशवलाल मोदी, हाजापटेलाकी पोल, अहमदाबाद। गाथामें यह सूचित किया कि 'तिसमयहार' अर्थात् पृष्ठ संख्या, २२४ । मूल्य, लिग्वा नहीं।
"जावड्या तिसमया" (श्राव० नियुक्ति गाथा ३०) इस ग्रन्थका विषय निर्ग्रन्थ जैन माधु-साध्वियोंके इत्यादि श्राठ गाथाओं का स्वरूप जिस प्रकार पहले अपराधस्थान विषयक प्रायश्रित्तोंका वर्णन है। इसमें (पूर्व ) आवश्यक (भाष्य ) में विस्तारसे कहा गया मूल सूत्र गाथाएँ २०३ और भाष्यकी गाथाएँ २६०६ है उसी प्रकार यहाँ भी वह वर्णनीय है। क्योंकि श्रावहै। मूलकी तरह भाष्यकी गाथाएँ भी प्राकृत श्यक नियुक्ति के अन्तर्गत "जावया तिसमया" आदि भाषामें है। माध्यमें मूल के शब्दों और विषयका प्रायः गाथाओंका भाष्यग्रन्थ द्वारा, विस्तृत व्याख्यान करने अच्छा स्पष्टीकरण किया गया है, और इमसे वह बड़ा वाल श्री जिनभद्रगणि क्षमाश्रमणके सिवाय दुसरे और ही सुन्दर नथा उपयोगी जान पड़ता है। इस भाष्यकी कोई भी नहीं हैं। इससे यह भाष्य मूल अथकारका ही बाबत अभी तक किमीको निश्चितरूपसे यह मालम नहीं निर्माण किया होनेस स्वोपज है। इतने पर भी यह भाष्य था कि यह किमकी रचना है, क्योंकि न तो इम भाध्यमे प्रथ प्रायः कल्पभाष्य, व्यवहारभाष्य, पंचकल्पभाष्य, भाष्यकारने स्वयं अपने नामका उल्लेग्ब किया, न चूगि पिण्ड नियुक्तिश्रादि प्रोंकी गाथाओं का संग्रहरूप ग्रंथ है; कारने अपने ग्रंथमें इम भाष्य विषयक कोई सूचना की क्योंकि इस ग्रथम ऐसी बहुत गाथाएँ हैं जो उक्त ग्रंथो और न अन्यत्रसे ही ऐसा कोई स्पष्ट उल्लेख मिलता की गाथायोंके साथ अक्षरशः मिलती जुलती है, ऐसा था जिसके आधारपर भाष्यकारके नामका ठीक निर्णय प्रस्तावनाम सूचित किया गया है। साथ ही, यह भी किया जाता । अन्य सम्पादक मुनि श्री पुरा पवि जय जीने सूचित किया गया है कि श्री जिनभद्रगणि क्षमाश्रमणकी अपनी प्रस्तावनामें, इस भाष्यकी गाथा नं०६०७ और महाभाष्यकारके रूपमें ख्याति होते हुए भी प्रस्तुत भाष्य उसमें खाम तौरसे प्रयुक्त हुए, 'हेटा' शब्द परसे जिमका में श्री संघदासगणि कृत भाष्यादि ग्रन्थोंकी गाथाओंके
तिसमय पारादीयं गाहामाया बी सरूवंता होने में कोई बाधा नहीं है, क्योंकि वे उनसे पहले हो वित्थरयो परयोज्जा जह हेडाऽऽवस्सए मियेण चुके हैं। अस्तु, ग्रंथका सम्पादन बहुत अच्छा हुआ है,