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भगवान महावीर और उनका उपदेश
हो जाता है कि इनमें कौन नियम सामारिक है और परन्तु इस बातका ध्यान जरूर रखें कि उनसे उनके कौन धार्मिक १ इससे धर्मकी असलियत गुप्त होकर धार्मिक श्रद्धान और धामिक आचरण में किसी भी भारी गड़-बड़ी पड़ जाती है, और सांसारिक प्रगति भी प्रकारकी खराबी न पाने पाये। रुक जाती है, द्रव्य क्षेत्र काल; भाव और अवस्थादि सब कुछ बदल जाने पर भी उन सांसारिक नियमोंको वीर भगवान के समयमें महात्मा बुद्ध भी अपने बौद्ध धर्मके अटल नियम मानकर ज्योका त्यों उनका पालन धर्मका प्रचार कर रहे थे, और मगध देशमें ही अधिकहोता रहता है। हजार दुःख उठाने पर भी उनमें हेर- तर दोनों का विहार हुआ है। इस ही कारण वह देश फेर नहीं किया जाता है। उनके विरुद्ध करना महा अब बिहार ही कहलाने लग गया है,परन्तु वीर भगवान अधर्म और अशुम ममझा जाता है।
और महात्मा बबके उपदेशोंमें प्रायः धरती-आकाशका
अन्तर रहा है । वीर भगवानने तो वस्तु-स्वभावको ही मकान कैसा बनाया जावे, उसका दरवाजा किधर धर्म बताकर प्रत्येक बातको उसकी असलियत अच्छी रक्ता जावे, दरवाजे कितने हों और कितने ऊँचे हो, तरह दंद पहचान कर ही मानने का उपदेश दिया है, खटी कहाँ लगाई जाय और शरण कहाँ मिलाई जीवात्माको अपना सच्चा स्वरूप समझ कर ही उसकी जाय, दाढ़ी मूंछ और सिरके बाल किस तरह मुंडाये प्राप्तिके साधन में लगाया है। परन्तु महात्मा बुद्ध अपने जावें, उनका क्या दंग रखा जावे, वस्त्राभषण कैमे धर्मको वस्तु स्वभावकी बुनियाद पर खड़ा करनेसे यहां हों, सिर किस तरह ढका जाय, कपड़ा किस रंगका तक घबराये हैं कि जीवात्माका स्वरूप बतानेसे ही साफ पहना जाय, और किस दंगका पहना जाय, इसी तरह इनकार कर दिया है। जगत अनादि है वा किसीका जाति और बिरादरी, आपसका बर्ताव, छतछात, किस बनाया हुआ है, उसका अन्त हो जायगा वा नहीं, जीव के हाथका पानी पीना, किमके हाथकी कच्ची और श्रात्मा शरीरसे अलग कोई वस्तु है वा शरीरके ही किसी और किसके हाथकी पक्की रसोई खाना, रसोईकी सफाई स्वभाव का नाम है, मरने के बाद जीव कायम रहता है के नियम, किम खानेको कहां बैठकर खाना, किस या नहीं इन बातोंकी बाबत तो महात्मा बद्धने माफ बर्तन में खाना, कौन कौन कपड़े पहन कर खाना, शब्दोंमें ही कह दिया है कि मैं कुछ नहीं बता सकता हू किससे ब्याह-शादी करना, मरने पर किसको वारिस इमलिए यह पता नहीं लगता है कि उनका धर्म किस बनाना, मरने जीने और ब्याह शादीमें क्या क्या रीति आधार पर टिका हुआ है । वेशक वह अहिंसाका सभी होना, यह सब सांसारिक रीतिये धर्मके तौर पर मानी उपदेश देता था, और दया धर्मको मुख्य ठहराता था, जाती हैं। और अन्य मतोंकी धर्म पुस्तकों में भी लिखी परन्तु उस समयमें हिंसाका प्रचार अधिक होनेके कारण पाती हैं। जिनके कारण धर्मकी असली बातें लोप होकर उमको यह पाबन्दी लगानेका भी साइस नहीं हुआ कि यह ही धर्मकी बातें बन जाती हैं। इन ही कारणोंमे उसके धर्मको अङ्गीकार करने वालेको मांस का त्याग वीर भगवान्ने अपने उपदेशमे केवल धर्मके स्वरूप ज़रूरी है । इसके अतिरिक्त उमने मरे हुए जीवोंका मांस
और उसके साधनोंका ही कथन किया है। और मांसा- खानेकी तो इजाजत दे दी थी। किन्तु वीर भगवानने रिक सारी बातोंको संसारी पुरुषों पर छोड़कर साफ़ जैनी के लिए माँस, मदिरा और शहद त्याग अावश्यक साफ कह दिया है कि इनका धर्मसे कोई मम्बन्ध नहीं ठहराया और मरे हुए. पशुका मांस खाना भी महापाप है। यह ही कारण है कि जैन ग्रन्थोंमें सांसारिक कार्यों बताया, क्योंकि उसमें तुरन्त ही त्रम जीव पैदा होने के नियम बिल्कुल भी नहीं मिलते हैं। हां, यह सूचना लगते हैं और मांस खानेसे घणा न रहकर जीवोंको भी ज़रूर मिलती है कि गहस्थी लोग अपने लौकिक कार्य मार कर खाजानेको मन चलने लगता है । इम ही कारण समय और अवस्थाके अनुकूल जिस तरह चाहें करें बौद्धोंमें जीते जानवरों को भी मारकर खाजानेका बहुत