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परवार बातिक इतिहास पर
प्रकाश
या 'पुग्वार' शन्द बनता है जो 'परवार' शन्दके अधिक सामरके आसपास था । पर बघेरवाल आज कल निकट है। संभव है 'परवार' लोग अपने 'पोरयाई' बरारमें ही अधिक हैं। पल्लीवालोंका मूलस्थान 'पाली' कहलानेवाले भाइयोंसे पहले ही मेवाड़ छोड़ चुके हो मारवाडमें है जो अब य० पी० के अनेक जिलों में फैले पर बाद में बहुत दिनों तक सम्बन्ध बना रहा हो और हुए हैं। इसी तरह श्रीमाल, श्रोसवाल, मेड़वाल, नब जिम तरह लेखोमें पोरवाड़ 'पौरपाट' लिखे जातं चित्तौड़ा श्रादि जातियाँ हैं जिनके मूलस्थान राजस्थान रहे हों उसी तरह इन्हें भी 'पौरपाट' लिया जाता रहा में निश्चित हैं+। ऐसी दशामें परवारोंका भी मूलहो। पर बोलनालमें 'पुरवार' या 'परवार' ही बने स्थान मेवाड़मे होना संभव है । आज भी अपने देशको रहे हो।
छोड़कर दुनियाँमरमें व्यापार निमित्त जानेकी जितनी इसके सिवाय एक संभावना और भी है। वह यहाशाचरबी बघेरवालथे। वे मांडलगढ़ में कि गुजराती और राजस्थानी भाषाओंमें शब्दके शुरू
• पैदा हुए और शहदीन गौरीके पाक्रमबोंसे त्रस्त और बीचका 'उ' कार 'श्रो' कारमं बदल जाता है।
होकर बहुत लोगों के साथ मानवेमें मा बसे थे। देखो अक्सर लोग 'बहुत' का उच्चारण 'बहोत' 'लुहार' का
मेरी विदन्तनमानाका पृ. १२.३। पूर्वकालमें इसी 'लोहार' 'सुपारी' का 'सोपारी' 'मुहर' का 'मोहर' 'गुड़'
तराके कारणोंसे जातियाँ बन जाती थीं। को 'गोड़' 'पुर' का 'पोर' करते हैं और लिग्वने भी हैं ।
___+ इनमें 'नेमा' और 'गोखातारे' बातिको भी इस तरह सह जमें ही उस तरफके लोग 'पुरवार' या 'पुरवाट' को 'पोग्वार' 'पोरवाट' या 'पोरवाई' उच्चारण
शामिल किया जासकता है। मालवा और सी.पी. करने लगे हों और एक ही जानि इस तरह दो बन गई
में 'नेमा' वैष्णव और जैन दोनों हैं। परारमें ये 'नेवा' हो । कुछ भी हो पर यह बात निश्चित् है कि 'पौरपाट'
कहलाते हैं और श्वेताम्बर जैन डायरेक्टरीके अनुसार शब्द जब बना तब वह 'पोरवाई का ही संस्कृत रूप
१०E में गुजरातमें इनकी संख्या १.२ थी। सिर्फ
मागहमें इनके कई हजार घर है। सूरत जिले में और माना गया। 'वैश्यवंशविभषण' नामक पुस्तक में जो बहुत
उसके भासपास एक 'गोबारा' नामकी जाति पावाद पहले एग्लो श्रोरियण्टल प्रेम लखनऊमे छपी थी परवारों
है जिसके बारेमें मेरा अनुमान है कि यही बुन्देलखबहमें का नाम 'पुरवार' छपा है । इससे मालूम होता है कि
कर भाकर गोलाबारे' कहलाने लगी है। ये लोग अपनेको
पत्रिक बताते है और वैश्य है । स्व. मुनि बुद्धिमागर परवारों के लिए 'पुरवार' शब्द भी व्यवहत होता था।
सम्पादित जैन-धातु-पतिमा-ख-संग्रह' नामक पुस्तक परवार जातिका मूल राजस्थान में है, यह बात के पहले भाग ५.नं.के एक लेख में एक प्रतिमाके सुननेमें कुछ लोगोंको भले ही विचित्र मालम हो, पर स्थापकको गोलापास्तव्य' लिखा है जिससे मालूम जातियों के इतिहासका प्रत्येक विद्यार्थी जानता है कि होता कि 'गोवा' वामका कोई नगर था जिससे वैश्योंकी करीब करीब सभी जातियाँ राजस्थानसे ही गोवापरब, 'गोलाबारे और गोबसिगारे ये तीनों ही निकलीउशारणावरवालका मलस्थान 'बघेरा' समय समय पर निकले होंगे।